|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि

माया से पार जाने का उपाय
योगीश्वर प्रबुद्ध जी द्वारा माया से पार जाने का उपाय बतलाया गया है- इसके लिए जिज्ञासु को गुरुदेव की शरण लेनी चाहिए| गुरुदेव ऐसे हों जो ब्रह्म-वेदों के पारदर्शी विद्वान हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें| उनका चित शाँत हो| जिज्ञासु को चाहिए कि गुरु को ही अपना प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने| उनकी निष्कपट भाव से सेवा करे और उनके पास रहकर भागवत धर्म की- भगवान् को प्राप्त करवाने वाली भक्ति भाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे| इन्हीं साधनों से सर्वात्मा एवं भक्त को अपनी आत्मा का दान करने वाले भगवान् प्रसन्न होते हैं| पहले शरीर, सन्तान आदि में मन की अनासक्ति सीखे| इसके पश्चात प्राणियों ले प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विजय की निष्कपट भाव से शिक्षा ग्रहण करे| मिट्टी, जल आदि से ब्रह्म शरीर की पवित्रता, छल-कपट आदि के त्याग से भीतर की पवित्रता, अपने धर्म का अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शीत-उपज, सुख-दुःख आदि द्वन्दों में हर्ष-विषाद से रहित होना सीखे| सर्वत्र अर्थात् समस्त देश,काल और वस्तुओं में चेतन रूप आत्मा और नित्यन्तारूप से ईश्वर को देखना, एकान्त सेवन ‘यही मेरा घर’ है- ऐसा भाव न रखना, ग्रहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्याग हो तो फटे-पुराने पवित्र चिथड़े जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार मिल जाए, उसी में संतोष करना सीखे| इसी तरह से मनुष्य भगवान् की माया को पार कर सकता है|
भगवन् स्मरण- परम प्रेम श्रद्धा के साथ निरन्तर भगवान् के स्वरूप का अथवा उनके नाम, गुण, प्रभाव और लीला आदि का चिंतन करते रहना ही उनका स्मरण करना है| अनन्त भाव से भगवान् का चिन्तन करने वाला प्रेमी भक्त जब भगवान् के वियोग को नहीं सह सकता, तब भगवान् को भी उसका वियोग असहनीय हो जाता है, और तब भगवान् स्वयम मिले की इच्छा करते हैं|
भगवान् को ही सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान, सबकी आत्मा और परम पुरुषोत्तम समझ कर अपने बाहरी और भीतरी समस्त कारणों को श्रद्धा-भक्ति पूर्वक उन्हीं कि सेवा में लगा देना अर्थात् बुद्धि में उनके तत्व का निश्चय मन से उनके गुणों, प्रभाव, स्वरूप और लीला-रहस्य का चिन्तन, वाणी से उनके नाम और गुण का कीर्तन, सिर से उनको नमस्कार करना, उनकी पूजा, उनकी सेवा, नेत्रों से उनके विग्रह का दर्शन, चरणों से उनके मंदिर और तीर्थादि में जाना तथा अपनी समस्त वस्तुओं को पूर्ण रूप से उनको अर्पण करके सब प्रकार से केवल उन्ही का ही रहना यही भगवान् का भजन करना है|
जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझ (परमेश्वर) को ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है| भगवान् के यदि कोई किसी एक स्वरूप विशेष का भगवद बुद्धि से स्मरण करता है तो वह भी भगवान् का ही स्मरण करता है तथा भगवान् के भिन्न-भिन्न अवतारों से सम्बन्ध रखने वाले नाम, गुण, प्रभाव और लीला-चरित्र आदि भी भगवान् की स्मृति में हेतु है| अतः उनको याद करने के साथ-साथ भगवान् कि स्मृति भी अपने आप हो जाती है, अतः नाम,गुण, प्रभाव और आदि का स्मरण करना ही भगवान् का स्मरण करना है|
यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है उस-उसको ही वह प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित होता है|
*********************************************************
भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
*********************************************************
Please Visit:
Our Blog: Click Here
Our Facebook Timeline: Click Here
Our Facebook Group: Click Here
Our Facebook Page: Click Here
Our Youtube Channel: Click Here