
सर्वप्रिय पुरुष
आत्मा शब्द का मोटा अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन या बुद्धि ही आत्मा है। स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में हम मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं। किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक लोकों के ऊपर, जहाँ का वातावरण आध्यात्मीकृत है।हम यह समझ सकते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् “मैं यह मन-बुद्धि या शरीर नहीं हैं-मैं तो आत्मा हूँ भगवान् का भिन्नांश ।" यही है। असली समझ या ज्ञान का स्तर या पद।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं। इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं। जब बालक रोता है तो वह क्या चाहता है? अपनी माता । किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती। स्वभावतः उसका शरीर उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता हैं अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। बालक अन्य किसी स्त्री को नहीं चाहेगा। बालक रोता है किन्तु जब वह स्त्री, जो बालक की माँ होती है, आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक चुप हो जाता है। यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती किन्तु अपनी माता से उसका सम्बन्ध प्रकृति का नियम है। इसी तरह हम स्वभावतः शरीर की रक्षा करना चाहते हैं। यह आत्मसंरक्षण हैं। यह जीव का प्राकृतिक नियम है जिस प्रकार भोजन एक प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है । तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करूँ? क्योंकि इस शरीर के भीतर आत्मा हैं।
(TO BE COUNTINUE)
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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