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रविवार, 30 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं)

  
हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं
तएव हमें अपनी इन्द्रियों को भौतिक सुख बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के इच्छुक न बनकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके आध्यात्मिक सुख पाने का प्रयास करना चाहिए। जैसा कि प्रह्लाद महाराज कहते हैं, "यद्यपि इस मानव शरीर में तुम्हारा जीवन क्षणिक हैं किन्तु है अत्यन्त मूल्यवान । अतएव अपने भौतिक इन्द्रियभोग को बढ़ाने का प्रयास करने की अपेक्षा तुम्हारा कर्तव्य होता है कि अपने कायों को किसी न किसी तरह कृष्णभावनामृत से जोड़ा। - मनुष्य शरीर से ही उच्चतर बुद्धि आती है। चूंकि हमें उच्चतर चेतना मिली है इसलिए जीवन में हमें उच्चतर आनन्द के लिए प्रयत्न करना चाहिए यह आध्यात्मिक आनन्द है। इस आध्यात्मिक आनन्द को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् की सेवा में लीन रहे क्योंकि वे ही भक्ति रूपी आनन्द प्रदान करने वाले हैं। हमें अपना ध्यान कृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने में लगाना चाहिए जो हमें इस भौतिक जगत से उद्धार करने वाले हैं।
  किन्तु क्या हम इस जीवन में आनन्द नहीं ले सकते और अगले जीवन में कृष्ण की सेवा में अपने को लगा दें? प्रह्लाद महाराज का उत्तर है, "अब हम भौतिक पाश में हैं। इस समय मुझे यह शरीर मिला है किन्तु कुछ वर्षों बाद मैं यह शरीर त्याग कर अन्य शरीर धारण करने के लिए बाध्य होऊँगा। एक बार एक शरीर पा लेने पर तथा अपने शरीर की इन्द्रियों के आदेशानुसार भोग करने पर हम दूसरे शरीर के लिए तैयार होते हैं और यह दूसरा शरीर अपनी इच्छा के अनुसार प्राप्त करते हैं।" इसकी कोई गारंटी नहीं हैं कि आपको मनुष्य शरीर ही मिले| यह तो आपके कर्म पर निर्भर करेगा। यदि आप देवता की तरह कर्म करेंगे तो आपको देवता का शरीर प्राप्त होगा और यदि आप कुत्ते की तरह कर्म करेंगे तो कुत्ते का शरीर मिलेगा। मृत्यु के समय आपका भाग्य आपके हाथ में नहीं होता यह प्रकृति के हाथ में होता है। यह हमारा धर्म नहीं की हम यह सोचें कि हमें गला कौन सा शरीर मिलेगा। इस समय तो हम इतना ही समझ ले कि यह मनुष्य शरीर हमारी आध्यात्मिक चेतना, हमारे कृष्णभावनामृत को विकसित करने का अच्छा सुअवसर है। इसलिए हमें तुरन्त कृष्ण की सेवा में जुट जाना चाहिए। तभी हम प्रगति कर सकेंगे।
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शनिवार, 29 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  इस भौतिक जगत में जीव एक आध्यात्मिक प्राणी है, किन्तु उसमें आनन्द लूटने की भौतिक शक्ति का उपयोग करने की प्रवृत्ति होती है इसलिए उसे शरीर प्राप्त हुआ है। जीवों की ८४ लाख योनियाँ हैं। और हर योनि का पृथक शरीर है। शरीर के अनुसार ही उनमें विशिष्ट इन्द्रियाँ होती हैं जिनसे वे किसी विशेष आनन्द को भोग सकते हैं। मान लीजिये कि आपको एक कैंटीली झाड़ी दे दी जाय और कहा जाय, देवियो और सज्जनो! यह अत्युत्तम भोजन है। यह ऊँटों द्वारा प्रमाणित है। यह अति उत्तम है।” तो क्या आप इसे खाना पसन्द करेंगे? "नहीं, आप यह क्या व्यर्थ की वस्तु मुझे दे रहे हैं? आप कहेंगे चूँकि आपको ऊँट से भिन्न शरीर मिला हुआ है अतएव आपको कैंटीली झाड़ी नहीं भाती। किन्तु यही झाड़ी ऊँट को दे दी जाय तो वह सोचेगा कि यह तो अत्युत्तम आहार है।
  यदि सुअर तथा ऊँट बिना किसी विकट संघर्ष के इन्द्रियतृप्ति का भोग कर सकते हैं तो हम मानव प्राणी क्यों नहीं कर सकते? हम कर सकते हैं किन्तु यह हमारी चरम उपलब्धि नहीं होगी चाहे वह सुअर हो या ऊँट अथवा मनुष्य, इन्द्रियतृप्ति भोगने की सुविधाएँ प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं। अतएव वे सुविधाएँ जो आपको प्रकृति के नियम द्वारा मिलनी है उनके लिए आप श्रम क्यों करें ? प्रत्येक योनि में शारीरिक माँगों की तुष्टि प्रकृति द्वारा व्यवस्थित होती है। इस तृप्ति की व्यवस्था उसी तरह की जाती है जिस तरह दुःख की व्यवस्था रहती है। क्या आप चाहेंगे कि आपको ज्वर चढ़े? नहीं। ज्चर क्यों चढ़ता है? मैं नहीं जानता। किन्तु यह चढ़ता है, है न! क्या आप इसके लिए प्रयास करते हैं? नहीं। तो यह चढ़ता कैसे है? प्रकृति से। यही एकमात्र उत्तर है। यदि आपका कष्ट प्रकृति द्वारा प्रदत्त है तो आपका सुख भी प्रकृतिजन्य है। इसके विषय में चिन्ता मत करें। यही प्रस्ताव महाराज का आदेश है। यदि आपको बिना प्रयास के ही जीवन में कष्ट मिलते हैं तो सुख भी बिना प्रयास के प्राप्त होगा।  तो इस मनुष्य जीवन का असली प्रयोजन क्या है? “कृष्णभावनामृत का अनुशीलन।” अन्य सारी वस्तुएँ प्रकृति के नियमों द्वारा, जो कि अन्ततः ईश्वर का नियम है, प्राप्त हो जायेंगी। यदि मैं प्रयास न भी करूं तो मुझे अपने विगत कर्म तथा शरीर के कारण, जो भी मिलना है, वह प्रदान किया जायेगा। अतएव आपकी असली चिन्ता मनुष्य जीवन के उच्चतर लक्ष्य को खोज निकालने की है।
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है। जिस तरह हम हाथ या अँगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है, उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा विधि है। भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है। अंगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं। जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहाँ आये तो वह तुरन्त आ जाता है और ज्योंही मैं चाहता हूँ कि अँगुली ढोल बजाये, वह बजाने लगती है। यह प्राकृतिक स्थिति है। इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए ईश्वर की खोज करते हैं किन्तु माया के जादू के कारण हम इसे जान नहीं पाते । यही हमारी भूल है। मनुष्य जीवन में हमें यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्थिति को समझें । चूँकि आप सभी मानव प्राणी हैं। इसीलिए कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का असली लक्ष्य है। मैं कुत्ते-बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए नहीं बुला सकता। यही अन्तर है मानव प्राणियों तथा कुत्ते-बिल्लियों में । मानव प्राणी जीवन के असली लक्ष्य को प्राप्त करने की आवश्यकता समझ सकता है। किन्तु यदि वह इस सुअवसर को हाथ से जाने देता है तो इसे महान् अनर्थ समझना चाहिए।
   प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “ईश्वर सर्वाधिक प्रिय पुरुष हैं । हमें उनकी खोज करनी चाहिए | तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं, “तुम लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे पड़े हो किन्तु इन्द्रियतृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही हो जाती है।” चूँकि सुअर को एक शरीर मिला है। अतएव उसकी इन्द्रियतृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सबों के लिए सबसे घृणित वस्तु है। आप दुर्गन्ध से बचने के लिए शौच के तुरन्त बाद वहाँ से चल देते हैं लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता हैं । ज्योंही आप शौच कर चुकते हैं वह तुरन्त उसका आनन्द उठाता है। अतएव शरीर के विविध प्रकारों के अनुसार इन्द्रियतृप्ति भिन्न भिन्न होती है । इन्द्रियतृप्ति प्रत्येक देहधारी को होती है। ऐसा कभी मत सोचें कि मल खाने वाले सुअर दुखी हैं। नहीं। वे इस तरह से मोटे बनते हैं। वे अत्यन्त सुखी है। दूसरा उदाहरण ऊँट का है। ऊँट कंटीली झाड़ियों का शौकीन होता है। क्यों? क्योंकि जब वह कंटीली झाड़ियाँ खाता है तो झाड़ियाँ उसकी जीभ को काट देती हैं, जिससे रक्त चूने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है। तब वह सोचता है, “मैं आनन्द पा रहा हूँ।” यही इन्द्रियतृप्ति है। यौन जीवन भी ऐसा ही हैं। हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते हैं कि आनन्द लूट रहे हैं। यही हमारी मूर्खता है।
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गुरुवार, 27 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  आत्मा शब्द का मोटा अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन या बुद्धि ही आत्मा है। स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में हम मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं। किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक लोकों के ऊपर, जहाँ का वातावरण आध्यात्मीकृत है।
हम यह समझ सकते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् “मैं यह मन-बुद्धि या शरीर नहीं हैं-मैं तो आत्मा हूँ भगवान् का भिन्नांश ।" यही है। असली समझ या ज्ञान का स्तर या पद।
   प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं। इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं। जब बालक रोता है तो वह क्या चाहता है? अपनी माता । किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती। स्वभावतः उसका शरीर उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता हैं अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। बालक अन्य किसी स्त्री को नहीं चाहेगा। बालक रोता है किन्तु जब वह स्त्री, जो बालक की माँ होती है, आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक चुप हो जाता है। यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती किन्तु अपनी माता से उसका सम्बन्ध प्रकृति का नियम है। इसी तरह हम स्वभावतः शरीर की रक्षा करना चाहते हैं। यह आत्मसंरक्षण हैं। यह जीव का प्राकृतिक नियम है जिस प्रकार भोजन एक प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है । तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करूँ? क्योंकि इस शरीर के भीतर आत्मा हैं।
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बुधवार, 26 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  जिन्होंने भगवद्गीता का पारायण किया है, उन्हें पाँचवें अध्याय में यह उत्तम श्लोक मिला होगा, “यदि आप शान्ति चाहते हैं तो आपको समझना होगा कि इस लोक की तथा अन्य लोकों की हर वस्तु कृष्ण की सम्पत्ति है, वे ही हर वस्तु के भोक्ता हैं एवं वे ही हर एक के परम मित्र हैं। तो फिर तपस्या क्यों की जाय? क्यों धार्मिक अनुष्ठान किये जायें? क्यों दान दिया जाय? ये सारे कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं तो आपको फल मिलता है। आप चाहे उच्चतर भौतिक सुख की कामना करते हों या आध्यात्मिक सुख की; आप चाहे इस लोक मैं श्रेष्ठतर जीवन बिताना चाहते हों या अन्य लोक में। यदि आप भगवान् को प्रसन्न कर लेते हैं तो आप उनसे मनवांछित फल प्राप्त कर सकेंगे। इसीलिए वे अत्यन्त निष्ठावान् मित्र हैं। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु नहीं चाहता जो भौतिक रूप से कलुषित हो।
  भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि केवल पुण्य कर्मों से मनुष्य सर्वोच्च लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है। जहाँ पर जीवन की अवधि (आयु) करोड़ों वर्ष है। आप वहाँ जीवन-अवधि का अंदाज नहीं लगा सकते, आपका सारा गणित व्यर्थ हो जाती है। भगवद्गीता में कहा गया है कि ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्थ है कि हमारे ४,३२,००,००,००० वर्ष उनके बारह घंटों के तुल्य हैं। कृष्ण कहते हैं, “तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद चाहने पर प्राप्त कर सकते हो जहाँ पर जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी। किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो तो तुमको इस कष्ट प्रद भौतिक जगत में फिर से नहीं आना होगा।” । प्रह्लाद महाराज यही बात कहते हैं, “हमें अपने सर्वप्रिय मित्र, कृष्ण की खोज करनी चाहिए" वे हमारे सर्वप्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वभाव से प्रिय हैं। क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वप्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वप्रिय वस्तु हैं। उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाय तो मैं तुरन्त अपनी रक्षा के विषय में सोचूंगा कि मैं अपने को किस तरह बचा सकता हूँ। तब हम अपने मित्रों और अपने सम्बन्धियों तक को भूल जाते हैं और यही धुन रहती हैं कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ। आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है।
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)


सर्वप्रिय पुरुष
     श्रीमद्भागवत भागवत-धर्म प्रस्तुत करता है अर्थात् ईश्वर विषयक वैज्ञानिक ज्ञान तक ले जाता है। भागवत का अर्थ है, “भगवान् और धर्म का अर्थ है “विधि-विधान ।” यह मानव जीवन सुदुर्लभ है। यह एक महान सुयोग हैं। इसीलिए प्रह्लाद कहते हैं, “मित्रो! तुमलोग सभ्य मनुष्यों के रूप में उत्पन्न हुए हो अतः तुम्हारा यह मनुष्य-शरीर क्षणभंगुर होते हुए भी महानतम सुयोग है। कोई भी व्यक्ति अपनी अवधि नहीं जानता। ऐसी गणना की जाती है कि इस युग में मनुष्य शरीर एक सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कलियुग आगे बढ़ता जाता है, यह जीवन अवधि (आयु), स्मृति, दया, धार्मिक तथा अन्य ऐसी ही विभूतियाँ घटती जाती है। अतएव इस युग में किसी को भी दीर्घ आयु का भरोसा नहीं हैं। । यद्यपि मनुष्य के स्वरूप क्षणिक हैं फिर भी इसी मनुष्य रूप में आप जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। वह सिद्धि क्या है? सर्वव्यापक भगवान को जान लेना। अन्य योनियों में यह सम्भव नहीं है। चूंकि हम क्रमिक विकास द्वारा यह मनुष्य स्वरूप प्राप्त करते हैं इसलिए यह दुर्लभ हैं। प्रकृति के नियमानुसार आपको अन्ततः मनुष्य-शरीर दिया जाता है जिससे आप आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करके भगवद्धाम वापस जा सकें। | जीवन का चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु या कृष्ण हैं। बाद के श्लोक में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “इस भौतिक जगत के जो लोग भौतिक शक्ति (माया) द्वारा मोहित होते रहते हैं, वे यह नहीं जानते कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है? क्यों ? क्योंकि वे भगवान् की ज्वलन्त माया द्वारा मोहित हैं। वे यह भूल चुके हैं कि जीवन तो सिद्धि के चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु को समझने के लिए मिला है।” विष्णु या ईश्वर को समझने के लिए हमें क्यों अतीव उत्सुक होना चाहिए? प्रह्लाद महाराज कारण बतलाते हैं, “विष्णु सर्वप्रिय पुरुष हैं। हम उन्हें ही भूल चुके हैं। हम सभी किसी प्रिय मित्र की तलाश में रहते हैं हर व्यक्ति इसी तरह तलाश करता है। पुरुष स्त्री के साथ प्रिय मैत्री करना चाहता है और स्त्री पुरुष से मैत्री करना चाहती है। या फिर एक पुरुष अन्य पुरुष को खोजता है और एक स्त्री अन्य स्त्री को खोजती है। हर व्यक्ति किसी न किसी प्रिय, मधुर मित्र की तलाश में रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि हम ऐसे प्रिय मित्र का सहयोग चाहते है जो हमारी सहायता कर सके। यह जीवन-संघर्ष का अंग है और यह स्वाभाविक है। किन्तु हम यह नहीं जानते कि भगवान् विष्णु हमारे सर्वप्रिय मित्र हैं।
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सोमवार, 24 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
     ज मैं आप लोगों से एक बालक भक्त की कथा कहूँगा जिनका नाम प्रह्लाद महाराज था। वे घोर नास्तिक परिवार में जन्मे थे। | इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य हैं-असुर तथा देवता। उनमें अन्तर क्या है? मुख्य अन्तर यह है कि देवता भगवान् के प्रति अनुरक्त होते हैं जबकि असुरगण नास्तिक होते हैं। वे ईश्वर में इसलिए विश्वास नहीं करते क्योंकि वे भौतिकतावादी होते हैं। मनुष्यों की ये दोनों श्रेणियाँ इस संसार में सदैव विद्यमान रहती हैं। कलियुग (कलह का युग) होने से सम्प्रति असुरों की संख्या बढ़ी हुई है किन्तु यह वर्गीकरण सृष्टि के प्रारम्भ से चला आ रहा है। आपलोगों से मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ वह सृष्टि के कुछ लाख वर्षों बाद घटी। । प्रह्लाद महाराज सर्वाधिक नास्तिक एवं सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के पुत्र थे। चूंकि उस समय का समाज भौतिकतावादी था अतएव इस बालक को भगवान के महिमा-गायन का अवसर ही नहीं मिलता था। महात्मा का लक्षण यह होता है कि वह भगवान् की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता है। उदाहरणार्थ, जीसस क्राइस्ट ईश्वर की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे किन्तु आसुरी लोगों ने उन्हें गलत समझा और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया।
     जब प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के थे तो उन्हें पाठशाला भेजा गया। ज्योंही मनोरंजन का समय आता और शिक्षक बाहर चला जाता, वे अपने मित्रों से कहते, “मित्रो! मेरे पास आओ। हमलोग कृष्णभावनामृत के विषय में बातें करेंगे। यह दृश्य श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध के छठे अध्याय में वर्णित है। भक्त प्रह्लाद कहते हैं, मित्रो! बाल्यावस्था का यह समय कृष्णभावनामृत अनुशीलन करने का है।" और उसके कम आयुवाले मित्र उत्तर देते हैं, “ओह! हम तो खेलेंगे। हम कृष्णभावनामृत क्यों ग्रहण करें?" प्रत्युत्तर में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “यदि तुम लोग बुद्धिमान हो तो बचपन से ही भागवत-धर्म शुरू करो ।”
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शनिवार, 15 सितंबर 2018

भक्तों की तीन श्रेणियां

भक्तों की तीन श्रेणियां
भक्तों की तीन श्रेणियां होती हैं । एक तो वे होते हैं जो किसी फल की कामना से भगवान को भजते हैं । भगवान कहते हैं - उनकी भक्ति वास्तविक भक्ति नहीं, वह तो एक प्रकार की स्वार्थपरायणता है ।