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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है। जिस तरह हम हाथ या अँगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है, उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा विधि है। भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है। अंगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं। जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहाँ आये तो वह तुरन्त आ जाता है और ज्योंही मैं चाहता हूँ कि अँगुली ढोल बजाये, वह बजाने लगती है। यह प्राकृतिक स्थिति है। इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए ईश्वर की खोज करते हैं किन्तु माया के जादू के कारण हम इसे जान नहीं पाते । यही हमारी भूल है। मनुष्य जीवन में हमें यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्थिति को समझें । चूँकि आप सभी मानव प्राणी हैं। इसीलिए कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का असली लक्ष्य है। मैं कुत्ते-बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए नहीं बुला सकता। यही अन्तर है मानव प्राणियों तथा कुत्ते-बिल्लियों में । मानव प्राणी जीवन के असली लक्ष्य को प्राप्त करने की आवश्यकता समझ सकता है। किन्तु यदि वह इस सुअवसर को हाथ से जाने देता है तो इसे महान् अनर्थ समझना चाहिए।
   प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “ईश्वर सर्वाधिक प्रिय पुरुष हैं । हमें उनकी खोज करनी चाहिए | तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं, “तुम लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे पड़े हो किन्तु इन्द्रियतृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही हो जाती है।” चूँकि सुअर को एक शरीर मिला है। अतएव उसकी इन्द्रियतृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सबों के लिए सबसे घृणित वस्तु है। आप दुर्गन्ध से बचने के लिए शौच के तुरन्त बाद वहाँ से चल देते हैं लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता हैं । ज्योंही आप शौच कर चुकते हैं वह तुरन्त उसका आनन्द उठाता है। अतएव शरीर के विविध प्रकारों के अनुसार इन्द्रियतृप्ति भिन्न भिन्न होती है । इन्द्रियतृप्ति प्रत्येक देहधारी को होती है। ऐसा कभी मत सोचें कि मल खाने वाले सुअर दुखी हैं। नहीं। वे इस तरह से मोटे बनते हैं। वे अत्यन्त सुखी है। दूसरा उदाहरण ऊँट का है। ऊँट कंटीली झाड़ियों का शौकीन होता है। क्यों? क्योंकि जब वह कंटीली झाड़ियाँ खाता है तो झाड़ियाँ उसकी जीभ को काट देती हैं, जिससे रक्त चूने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है। तब वह सोचता है, “मैं आनन्द पा रहा हूँ।” यही इन्द्रियतृप्ति है। यौन जीवन भी ऐसा ही हैं। हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते हैं कि आनन्द लूट रहे हैं। यही हमारी मूर्खता है।
(TO BE COUNTINUE)
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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