सर्वप्रिय पुरुष
इस भौतिक जगत में जीव एक आध्यात्मिक प्राणी है, किन्तु उसमें आनन्द लूटने की भौतिक शक्ति का उपयोग करने की प्रवृत्ति होती है इसलिए उसे शरीर प्राप्त हुआ है। जीवों की ८४ लाख योनियाँ हैं। और हर योनि का पृथक शरीर है। शरीर के अनुसार ही उनमें विशिष्ट इन्द्रियाँ होती हैं जिनसे वे किसी विशेष आनन्द को भोग सकते हैं। मान लीजिये कि आपको एक कैंटीली झाड़ी दे दी जाय और कहा जाय, देवियो और सज्जनो! यह अत्युत्तम भोजन है। यह ऊँटों द्वारा प्रमाणित है। यह अति उत्तम है।” तो क्या आप इसे खाना पसन्द करेंगे? "नहीं, आप यह क्या व्यर्थ की वस्तु मुझे दे रहे हैं? आप कहेंगे चूँकि आपको ऊँट से भिन्न शरीर मिला हुआ है अतएव आपको कैंटीली झाड़ी नहीं भाती। किन्तु यही झाड़ी ऊँट को दे दी जाय तो वह सोचेगा कि यह तो अत्युत्तम आहार है।यदि सुअर तथा ऊँट बिना किसी विकट संघर्ष के इन्द्रियतृप्ति का भोग कर सकते हैं तो हम मानव प्राणी क्यों नहीं कर सकते? हम कर सकते हैं किन्तु यह हमारी चरम उपलब्धि नहीं होगी चाहे वह सुअर हो या ऊँट अथवा मनुष्य, इन्द्रियतृप्ति भोगने की सुविधाएँ प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं। अतएव वे सुविधाएँ जो आपको प्रकृति के नियम द्वारा मिलनी है उनके लिए आप श्रम क्यों करें ? प्रत्येक योनि में शारीरिक माँगों की तुष्टि प्रकृति द्वारा व्यवस्थित होती है। इस तृप्ति की व्यवस्था उसी तरह की जाती है जिस तरह दुःख की व्यवस्था रहती है। क्या आप चाहेंगे कि आपको ज्वर चढ़े? नहीं। ज्चर क्यों चढ़ता है? मैं नहीं जानता। किन्तु यह चढ़ता है, है न! क्या आप इसके लिए प्रयास करते हैं? नहीं। तो यह चढ़ता कैसे है? प्रकृति से। यही एकमात्र उत्तर है। यदि आपका कष्ट प्रकृति द्वारा प्रदत्त है तो आपका सुख भी प्रकृतिजन्य है। इसके विषय में चिन्ता मत करें। यही प्रस्ताव महाराज का आदेश है। यदि आपको बिना प्रयास के ही जीवन में कष्ट मिलते हैं तो सुख भी बिना प्रयास के प्राप्त होगा। तो इस मनुष्य जीवन का असली प्रयोजन क्या है? “कृष्णभावनामृत का अनुशीलन।” अन्य सारी वस्तुएँ प्रकृति के नियमों द्वारा, जो कि अन्ततः ईश्वर का नियम है, प्राप्त हो जायेंगी। यदि मैं प्रयास न भी करूं तो मुझे अपने विगत कर्म तथा शरीर के कारण, जो भी मिलना है, वह प्रदान किया जायेगा। अतएव आपकी असली चिन्ता मनुष्य जीवन के उच्चतर लक्ष्य को खोज निकालने की है।
(TO BE COUNTINUE)
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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