सर्वप्रिय पुरुष
जिन्होंने भगवद्गीता का पारायण किया है, उन्हें पाँचवें अध्याय में यह उत्तम श्लोक मिला होगा, “यदि आप शान्ति चाहते हैं तो आपको समझना होगा कि इस लोक की तथा अन्य लोकों की हर वस्तु कृष्ण की सम्पत्ति है, वे ही हर वस्तु के भोक्ता हैं एवं वे ही हर एक के परम मित्र हैं। तो फिर तपस्या क्यों की जाय? क्यों धार्मिक अनुष्ठान किये जायें? क्यों दान दिया जाय? ये सारे कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं तो आपको फल मिलता है। आप चाहे उच्चतर भौतिक सुख की कामना करते हों या आध्यात्मिक सुख की; आप चाहे इस लोक मैं श्रेष्ठतर जीवन बिताना चाहते हों या अन्य लोक में। यदि आप भगवान् को प्रसन्न कर लेते हैं तो आप उनसे मनवांछित फल प्राप्त कर सकेंगे। इसीलिए वे अत्यन्त निष्ठावान् मित्र हैं। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु नहीं चाहता जो भौतिक रूप से कलुषित हो।भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि केवल पुण्य कर्मों से मनुष्य सर्वोच्च लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है। जहाँ पर जीवन की अवधि (आयु) करोड़ों वर्ष है। आप वहाँ जीवन-अवधि का अंदाज नहीं लगा सकते, आपका सारा गणित व्यर्थ हो जाती है। भगवद्गीता में कहा गया है कि ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्थ है कि हमारे ४,३२,००,००,००० वर्ष उनके बारह घंटों के तुल्य हैं। कृष्ण कहते हैं, “तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद चाहने पर प्राप्त कर सकते हो जहाँ पर जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी। किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो तो तुमको इस कष्ट प्रद भौतिक जगत में फिर से नहीं आना होगा।” । प्रह्लाद महाराज यही बात कहते हैं, “हमें अपने सर्वप्रिय मित्र, कृष्ण की खोज करनी चाहिए" वे हमारे सर्वप्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वभाव से प्रिय हैं। क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वप्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वप्रिय वस्तु हैं। उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाय तो मैं तुरन्त अपनी रक्षा के विषय में सोचूंगा कि मैं अपने को किस तरह बचा सकता हूँ। तब हम अपने मित्रों और अपने सम्बन्धियों तक को भूल जाते हैं और यही धुन रहती हैं कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ। आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है।
(TO BE COUNTINUE)
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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