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सोमवार, 24 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
     ज मैं आप लोगों से एक बालक भक्त की कथा कहूँगा जिनका नाम प्रह्लाद महाराज था। वे घोर नास्तिक परिवार में जन्मे थे। | इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य हैं-असुर तथा देवता। उनमें अन्तर क्या है? मुख्य अन्तर यह है कि देवता भगवान् के प्रति अनुरक्त होते हैं जबकि असुरगण नास्तिक होते हैं। वे ईश्वर में इसलिए विश्वास नहीं करते क्योंकि वे भौतिकतावादी होते हैं। मनुष्यों की ये दोनों श्रेणियाँ इस संसार में सदैव विद्यमान रहती हैं। कलियुग (कलह का युग) होने से सम्प्रति असुरों की संख्या बढ़ी हुई है किन्तु यह वर्गीकरण सृष्टि के प्रारम्भ से चला आ रहा है। आपलोगों से मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ वह सृष्टि के कुछ लाख वर्षों बाद घटी। । प्रह्लाद महाराज सर्वाधिक नास्तिक एवं सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के पुत्र थे। चूंकि उस समय का समाज भौतिकतावादी था अतएव इस बालक को भगवान के महिमा-गायन का अवसर ही नहीं मिलता था। महात्मा का लक्षण यह होता है कि वह भगवान् की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता है। उदाहरणार्थ, जीसस क्राइस्ट ईश्वर की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे किन्तु आसुरी लोगों ने उन्हें गलत समझा और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया।
     जब प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के थे तो उन्हें पाठशाला भेजा गया। ज्योंही मनोरंजन का समय आता और शिक्षक बाहर चला जाता, वे अपने मित्रों से कहते, “मित्रो! मेरे पास आओ। हमलोग कृष्णभावनामृत के विषय में बातें करेंगे। यह दृश्य श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध के छठे अध्याय में वर्णित है। भक्त प्रह्लाद कहते हैं, मित्रो! बाल्यावस्था का यह समय कृष्णभावनामृत अनुशीलन करने का है।" और उसके कम आयुवाले मित्र उत्तर देते हैं, “ओह! हम तो खेलेंगे। हम कृष्णभावनामृत क्यों ग्रहण करें?" प्रत्युत्तर में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “यदि तुम लोग बुद्धिमान हो तो बचपन से ही भागवत-धर्म शुरू करो ।”
(TO BE COUNTINUE)

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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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