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गुरुवार, 11 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ)

मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ
    यदि आप विदेश में होते हैं तो आप अपने घर को, अपने परिवार वालों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यन्त प्रिय हैं। किन्तु यदि आपको एकाएक उनकी याद दिलाई जाय तो आप अभिभूत हो उठेगे “मैं उनसे कैसे मिल सकेंगा?" सैन् फ्रांसिस्को में हमारे एक मित्र ने मुझसे बतलाया कि वह बहुत पहले अपने बच्चों को छोड़कर दूसरे देश में चला गया था। हाल ही में उसके जवान पुत्र का पत्र आया है। इससे तुरन्त ही पिता को उसके प्रति अपने स्नेह का स्मरण हो आया और उसने कुछ धन उसके पास भेज दिया। यह स्नेह स्वतः उत्पन्न हुआ यद्यपि वह अपने पुत्र को इतने वर्षों से भूला हुआ था। इसी प्रकार का के प्रति हमारा स्नेह इतना घनिष्ट है कि ज्योंही कृष्णभावनामृत का स्पर्श होता है कि हमें तुरन्त ही कृष्ण से अपने सम्बन्ध की याद ताजी हो जाती है।
  प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष सम्बन्ध होता है जिसे वह भूल चुका है। किन्तु ज्यों-ज्यों हम कृष्णभावनाभावित होते जाते हैं त्यों-त्यों क्रमशः कृष्ण के साथ हमारे सम्बन्ध की पुरानी चेतना ताजी हो उठती है। और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है तो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष सम्बन्ध को समझ सकते हैं। कृष्ण के साथ हमारा सम्बन्ध पुत्र या दास के रूप में, मित्र के रूप में, माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रेमी के रूप में हो सकता है। ये सारे सम्बन्ध इस भौतिक जगत में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं। किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा सम्बन्ध फिर से जागृत हो उठता है।
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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ)

मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ
    अब प्रह्लाद महाराज भौतिक जीवन की जटिलताओं के विषय में आगे कहते हैं। वे अनुरक्त गृहस्थ की उपमा रेशम के कीट से। देते हैं। रेशम का कीट अपने ही थूक से बनाये गये कोशा में अपने को लपेट लेता है जिससे वह इस बन्दीखाने से निकल नहीं पाता। इसी प्रकार भौतिकतावादी गृहस्थ का पाश इतना दृढ़ हो जाता है कि वह पारिवारिक आकर्षण रूपी कोशा से निकल नहीं पाता । यद्यपि भौतिकतावादी गृहस्थ जीवन में अनेकानेक कष्ट हैं किन्तु वह उनसे छूट नहीं पाता। क्यों? क्योंकि वह सोचता है कि यौन-जीवन तथा स्वादिष्ट भोजन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए अनेकानेक कष्टों के बावजूद वह उनका परित्याग नहीं कर पाता।
  इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फसा रहता है तो वह अपने वास्तविक लाभ के विषय में, भौतिक जीवन से छुटकारा पाने के विषय में सोच नहीं पाता। यद्यपि वह भौतिकतावादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है किन्तु तो भी प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता। वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को बर्बाद कर रहा है। वह उस जीवन को नष्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए, अपने असली आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था।
    प्रह्लाद महाराज अपने आसुरी मित्रों से कहते हैं, “इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोग के पीछे दौड़ते हैं। तुम लोग उन व्यक्तियों की संगति क्यों नहीं करते जिन्होंने कृष्णभावनामृत अपना रखा है।” यही उनका उपदेश हैं। वे अपने मित्रों से कहते हैं कि इस कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना आसान है। क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यन्त प्रिय हैं किन्तु हम उसे भूल चुके हैं। अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे अधिकाधिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है।
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मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को तुरन्त ही कृष्णभावनामृत प्रारम्भ कर देना चाहिए। मान लीजिये कि कोई यह सोचता है, मैं अपना यह खेलकुद का जीवन बिताने के बाद जब बूढ़ा हो जाऊँगा और मेरे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा तो मैं कृष्णभावनामृत संघ जाकर कुछ सुनँगा।” निश्चय ही उस समय आध्यात्मिक जीवन बिताया जा सकता है किन्तु इसकी गारंटी कहाँ है कि कोई व्यक्ति वृद्धावस्था तक जीवित रहेगा? मृत्यु किसी भी समय आ सकती है। इसलिए आध्यात्मिक जीवन को टालना अत्यन्त खतरनाक है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कृष्णभावनामृत के सुअवसर का लाभ उठावें । यही इस संध का प्रयोजन है कि हरएक को जीवन की किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत का अवसर प्रदान किया जाय। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन करने से प्रगति काफी तेज हो जाती है। यही इसका तुरन्त फल है।
  हम उन समस्त देवियों एवं सज्जनों से, जो कि हमारा व्याख्यान सुनते हैं या हमारा साहित्य पढ़ते हैं, अनुरोध करेंगे कि घर पर फुरसत के समय हरे कृष्ण कीर्तन करें और हमारी पुस्तकें पढ़ें । यही हमारा अनुरोध है । हमें विश्वास है कि आपको यह विधि अत्यन्त सुखकर तथा प्रभावशाली लगेगी।
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सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुन्दर पत्नी से विवाह करने और शान्तिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है। चूंकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धान्तों का प्रशिक्षण दिया जा चुका है इसलिए वह इस भौतिक जगत में नहीं फंसेगा। जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है।
  अतएव पारिवारिक जीवन की निन्दा नहीं की जाती। किन्तु यदि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक पहचान (सत्ता) भूल कर सांसारिक व्यापारों में फंस जाता है तो उसके जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। यदि कोई यह सोचता है कि मैं कामवासना से अपने को नहीं बचा सकता तो उसे चाहिए कि वह विवाह कर ले। इसकी संस्तुति है। लेकिन अवैध मैथुन न किया जाय। यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री को चाहता है या कोई स्त्री किसी पुरूष को चाहती है तो उन्हें चाहिए कि विवाह करके कृष्णभावनामृत में जीवन बितायें। | जो व्यक्ति बचपन से ही कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित किया जाता है, भौतिक जीवन शैली के प्रति उसका झुकाव कम हो जाता है और पचास वर्ष की आयु में वह ऐसे जीवन का परित्याग कर देता है। वह किस तरह परित्याग करता है? पति तथा पत्नी घर छोड़ कर एक साथ किसी तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति पच्चीस वर्ष से लेकर पचास वर्ष की आयु तक पारिवारिक जीवन में रहा है। तो तब तक उसकी कुछ सन्तानें अवश्य ही बड़ी हो जाती हैं। इस तरह पचास वर्ष की आयु में वह अपने पारिवारिक मामले अपने गृहस्थ जीवन बिताने वाले पुत्रों में से किसी को सौंप कर अपनी पत्नी के साथ पारिवारिक बन्धनों को भुलाने के लिए किसी तीर्थस्थान की यात्रा पर जा सकता है। जब वह पुरुष पूरी तरह विरक्त हो जाता है तो वह अपनी पत्नी से अपने पुत्रों के पास वापस चले जाने के लिए कहता है और स्वंय अकेला रह जाता है। यही वैदिक प्रणाली है। हमें क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए अवसर देना चाहिए । अन्यथा यदि हम सारे जीवन भौतिक चेतना में ही बँधे रहे तो हम अपनी कृष्णचेतना में पूर्ण नहीं बन सकेंगे और इस मानव जीवन के सुनहरे अवसर को हाथ से चला जाने देंगे।
  तथाकथित सुखी पारिवारिक जीवन का अर्थ है कि हमारी पत्नी तथा हमारी सन्तानें बहुत ही प्यारी हैं। इस तरह हम जीवन का आनन्द उठाते हैं। किन्तु हम यह नहीं जानते होते कि यह आनन्द या भोग मिथ्या है और मिथ्या आधार पर टिका है। हमें पलक झाँपते । इस भोग को त्यागना पड़ सकता है। मृत्यु हमारे वश में नहीं है। भगवद्गीता से हम यह सीखते हैं कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी पर अधिक अनुरक्त रहता है तो मरने पर अगले जन्म में उसे स्त्री का शरीर प्राप्त होगा। यदि पत्नी अपने पति पर अत्यधिक अनुरक्त रहती है तो अगले जन्म में उसे पुरुष का शरीर प्राप्त होगा। इसी तरह, यदि आप पारिवारिक व्यक्ति नहीं हैं बल्कि कुत्तों-बिल्लियों से अधिक लगाव रखते हैं तो अगले जीवन में आप कुत्ता या बिल्ली होंगे। ये कर्म के नियम हैं।
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रविवार, 7 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यन्त अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्हें अपने गुरु नारदमुनि से ज्ञान मिला था। इसका उद्घाटन श्रीमद्भागवत के अगले अध्याय (७७)में किया गया है। ज्ञान आप पर निर्भर नहीं करता अपितु प्राप्ति के श्रेष्ठ स्रोत पर निर्भर करता है। केवल आयु बढ़ने से ही कोई चतुर नहीं बन जाता। ऐसा सम्भव नहीं है। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई पाँच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा । जैसा कि कहा जाता है, “ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है।"
  यद्यपि प्रह्लाद केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में बढ़े होने से वे अपने सहपाठियों को सम्यक् उपदेश दे रहे थे। कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं। जो व्यक्ति विवाहित है उसे प्रह्लाद के इस उपदेश से कि “कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिये" लगेगा कि वह अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकेगा? हम तो साथ साथ उठते, बैठते, बातें करते और आनन्द मनाते हैं। भला कैसे छोड़ सकता हूँ? उसे पारिवारिक आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है।
  मैं वृद्ध हूँ, मेरी आयु ७२ वर्ष की है। मैं विगत १४ वर्षों से अपने परिवार से विलग हूँ, तो भी कभी कभी मैं भी अपनी पत्नी और बच्चों के विषय में सोचता हूँ। यह स्वाभाविक है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं वापस चला जाऊंगा। यह ज्ञान है। जब मन इन्द्रियतृप्ति के विचारों में चक्कर काटता है तो यह समझना चाहिए कि “यह मोह हैं।” | वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिचार छोड़ना ही पड़ता है। उसे जाना ही पड़ेगा। इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं। पाँच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारु रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए । मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धान्त कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए। तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा। कृष्णभावनामावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। यही सम्यक् कृष्णभावनामृत है।
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