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रविवार, 7 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यन्त अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्हें अपने गुरु नारदमुनि से ज्ञान मिला था। इसका उद्घाटन श्रीमद्भागवत के अगले अध्याय (७७)में किया गया है। ज्ञान आप पर निर्भर नहीं करता अपितु प्राप्ति के श्रेष्ठ स्रोत पर निर्भर करता है। केवल आयु बढ़ने से ही कोई चतुर नहीं बन जाता। ऐसा सम्भव नहीं है। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई पाँच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा । जैसा कि कहा जाता है, “ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है।"
  यद्यपि प्रह्लाद केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में बढ़े होने से वे अपने सहपाठियों को सम्यक् उपदेश दे रहे थे। कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं। जो व्यक्ति विवाहित है उसे प्रह्लाद के इस उपदेश से कि “कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिये" लगेगा कि वह अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकेगा? हम तो साथ साथ उठते, बैठते, बातें करते और आनन्द मनाते हैं। भला कैसे छोड़ सकता हूँ? उसे पारिवारिक आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है।
  मैं वृद्ध हूँ, मेरी आयु ७२ वर्ष की है। मैं विगत १४ वर्षों से अपने परिवार से विलग हूँ, तो भी कभी कभी मैं भी अपनी पत्नी और बच्चों के विषय में सोचता हूँ। यह स्वाभाविक है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं वापस चला जाऊंगा। यह ज्ञान है। जब मन इन्द्रियतृप्ति के विचारों में चक्कर काटता है तो यह समझना चाहिए कि “यह मोह हैं।” | वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिचार छोड़ना ही पड़ता है। उसे जाना ही पड़ेगा। इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं। पाँच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारु रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए । मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धान्त कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए। तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा। कृष्णभावनामावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। यही सम्यक् कृष्णभावनामृत है।
(TO BE COUNTINUE)
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