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गुरुवार, 11 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ)

मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ
    यदि आप विदेश में होते हैं तो आप अपने घर को, अपने परिवार वालों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यन्त प्रिय हैं। किन्तु यदि आपको एकाएक उनकी याद दिलाई जाय तो आप अभिभूत हो उठेगे “मैं उनसे कैसे मिल सकेंगा?" सैन् फ्रांसिस्को में हमारे एक मित्र ने मुझसे बतलाया कि वह बहुत पहले अपने बच्चों को छोड़कर दूसरे देश में चला गया था। हाल ही में उसके जवान पुत्र का पत्र आया है। इससे तुरन्त ही पिता को उसके प्रति अपने स्नेह का स्मरण हो आया और उसने कुछ धन उसके पास भेज दिया। यह स्नेह स्वतः उत्पन्न हुआ यद्यपि वह अपने पुत्र को इतने वर्षों से भूला हुआ था। इसी प्रकार का के प्रति हमारा स्नेह इतना घनिष्ट है कि ज्योंही कृष्णभावनामृत का स्पर्श होता है कि हमें तुरन्त ही कृष्ण से अपने सम्बन्ध की याद ताजी हो जाती है।
  प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष सम्बन्ध होता है जिसे वह भूल चुका है। किन्तु ज्यों-ज्यों हम कृष्णभावनाभावित होते जाते हैं त्यों-त्यों क्रमशः कृष्ण के साथ हमारे सम्बन्ध की पुरानी चेतना ताजी हो उठती है। और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है तो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष सम्बन्ध को समझ सकते हैं। कृष्ण के साथ हमारा सम्बन्ध पुत्र या दास के रूप में, मित्र के रूप में, माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रेमी के रूप में हो सकता है। ये सारे सम्बन्ध इस भौतिक जगत में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं। किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा सम्बन्ध फिर से जागृत हो उठता है।
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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ)

मैं कृष्ण को अत्यधिक चाहता हूँ
    अब प्रह्लाद महाराज भौतिक जीवन की जटिलताओं के विषय में आगे कहते हैं। वे अनुरक्त गृहस्थ की उपमा रेशम के कीट से। देते हैं। रेशम का कीट अपने ही थूक से बनाये गये कोशा में अपने को लपेट लेता है जिससे वह इस बन्दीखाने से निकल नहीं पाता। इसी प्रकार भौतिकतावादी गृहस्थ का पाश इतना दृढ़ हो जाता है कि वह पारिवारिक आकर्षण रूपी कोशा से निकल नहीं पाता । यद्यपि भौतिकतावादी गृहस्थ जीवन में अनेकानेक कष्ट हैं किन्तु वह उनसे छूट नहीं पाता। क्यों? क्योंकि वह सोचता है कि यौन-जीवन तथा स्वादिष्ट भोजन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए अनेकानेक कष्टों के बावजूद वह उनका परित्याग नहीं कर पाता।
  इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फसा रहता है तो वह अपने वास्तविक लाभ के विषय में, भौतिक जीवन से छुटकारा पाने के विषय में सोच नहीं पाता। यद्यपि वह भौतिकतावादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है किन्तु तो भी प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता। वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को बर्बाद कर रहा है। वह उस जीवन को नष्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए, अपने असली आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था।
    प्रह्लाद महाराज अपने आसुरी मित्रों से कहते हैं, “इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोग के पीछे दौड़ते हैं। तुम लोग उन व्यक्तियों की संगति क्यों नहीं करते जिन्होंने कृष्णभावनामृत अपना रखा है।” यही उनका उपदेश हैं। वे अपने मित्रों से कहते हैं कि इस कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना आसान है। क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यन्त प्रिय हैं किन्तु हम उसे भूल चुके हैं। अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे अधिकाधिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है।
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मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को तुरन्त ही कृष्णभावनामृत प्रारम्भ कर देना चाहिए। मान लीजिये कि कोई यह सोचता है, मैं अपना यह खेलकुद का जीवन बिताने के बाद जब बूढ़ा हो जाऊँगा और मेरे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा तो मैं कृष्णभावनामृत संघ जाकर कुछ सुनँगा।” निश्चय ही उस समय आध्यात्मिक जीवन बिताया जा सकता है किन्तु इसकी गारंटी कहाँ है कि कोई व्यक्ति वृद्धावस्था तक जीवित रहेगा? मृत्यु किसी भी समय आ सकती है। इसलिए आध्यात्मिक जीवन को टालना अत्यन्त खतरनाक है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कृष्णभावनामृत के सुअवसर का लाभ उठावें । यही इस संध का प्रयोजन है कि हरएक को जीवन की किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत का अवसर प्रदान किया जाय। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन करने से प्रगति काफी तेज हो जाती है। यही इसका तुरन्त फल है।
  हम उन समस्त देवियों एवं सज्जनों से, जो कि हमारा व्याख्यान सुनते हैं या हमारा साहित्य पढ़ते हैं, अनुरोध करेंगे कि घर पर फुरसत के समय हरे कृष्ण कीर्तन करें और हमारी पुस्तकें पढ़ें । यही हमारा अनुरोध है । हमें विश्वास है कि आपको यह विधि अत्यन्त सुखकर तथा प्रभावशाली लगेगी।
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सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुन्दर पत्नी से विवाह करने और शान्तिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है। चूंकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धान्तों का प्रशिक्षण दिया जा चुका है इसलिए वह इस भौतिक जगत में नहीं फंसेगा। जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है।
  अतएव पारिवारिक जीवन की निन्दा नहीं की जाती। किन्तु यदि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक पहचान (सत्ता) भूल कर सांसारिक व्यापारों में फंस जाता है तो उसके जीवन का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। यदि कोई यह सोचता है कि मैं कामवासना से अपने को नहीं बचा सकता तो उसे चाहिए कि वह विवाह कर ले। इसकी संस्तुति है। लेकिन अवैध मैथुन न किया जाय। यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री को चाहता है या कोई स्त्री किसी पुरूष को चाहती है तो उन्हें चाहिए कि विवाह करके कृष्णभावनामृत में जीवन बितायें। | जो व्यक्ति बचपन से ही कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित किया जाता है, भौतिक जीवन शैली के प्रति उसका झुकाव कम हो जाता है और पचास वर्ष की आयु में वह ऐसे जीवन का परित्याग कर देता है। वह किस तरह परित्याग करता है? पति तथा पत्नी घर छोड़ कर एक साथ किसी तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति पच्चीस वर्ष से लेकर पचास वर्ष की आयु तक पारिवारिक जीवन में रहा है। तो तब तक उसकी कुछ सन्तानें अवश्य ही बड़ी हो जाती हैं। इस तरह पचास वर्ष की आयु में वह अपने पारिवारिक मामले अपने गृहस्थ जीवन बिताने वाले पुत्रों में से किसी को सौंप कर अपनी पत्नी के साथ पारिवारिक बन्धनों को भुलाने के लिए किसी तीर्थस्थान की यात्रा पर जा सकता है। जब वह पुरुष पूरी तरह विरक्त हो जाता है तो वह अपनी पत्नी से अपने पुत्रों के पास वापस चले जाने के लिए कहता है और स्वंय अकेला रह जाता है। यही वैदिक प्रणाली है। हमें क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए अवसर देना चाहिए । अन्यथा यदि हम सारे जीवन भौतिक चेतना में ही बँधे रहे तो हम अपनी कृष्णचेतना में पूर्ण नहीं बन सकेंगे और इस मानव जीवन के सुनहरे अवसर को हाथ से चला जाने देंगे।
  तथाकथित सुखी पारिवारिक जीवन का अर्थ है कि हमारी पत्नी तथा हमारी सन्तानें बहुत ही प्यारी हैं। इस तरह हम जीवन का आनन्द उठाते हैं। किन्तु हम यह नहीं जानते होते कि यह आनन्द या भोग मिथ्या है और मिथ्या आधार पर टिका है। हमें पलक झाँपते । इस भोग को त्यागना पड़ सकता है। मृत्यु हमारे वश में नहीं है। भगवद्गीता से हम यह सीखते हैं कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी पर अधिक अनुरक्त रहता है तो मरने पर अगले जन्म में उसे स्त्री का शरीर प्राप्त होगा। यदि पत्नी अपने पति पर अत्यधिक अनुरक्त रहती है तो अगले जन्म में उसे पुरुष का शरीर प्राप्त होगा। इसी तरह, यदि आप पारिवारिक व्यक्ति नहीं हैं बल्कि कुत्तों-बिल्लियों से अधिक लगाव रखते हैं तो अगले जीवन में आप कुत्ता या बिल्ली होंगे। ये कर्म के नियम हैं।
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रविवार, 7 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यन्त अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्हें अपने गुरु नारदमुनि से ज्ञान मिला था। इसका उद्घाटन श्रीमद्भागवत के अगले अध्याय (७७)में किया गया है। ज्ञान आप पर निर्भर नहीं करता अपितु प्राप्ति के श्रेष्ठ स्रोत पर निर्भर करता है। केवल आयु बढ़ने से ही कोई चतुर नहीं बन जाता। ऐसा सम्भव नहीं है। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई पाँच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा । जैसा कि कहा जाता है, “ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है।"
  यद्यपि प्रह्लाद केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में बढ़े होने से वे अपने सहपाठियों को सम्यक् उपदेश दे रहे थे। कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं। जो व्यक्ति विवाहित है उसे प्रह्लाद के इस उपदेश से कि “कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिये" लगेगा कि वह अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकेगा? हम तो साथ साथ उठते, बैठते, बातें करते और आनन्द मनाते हैं। भला कैसे छोड़ सकता हूँ? उसे पारिवारिक आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है।
  मैं वृद्ध हूँ, मेरी आयु ७२ वर्ष की है। मैं विगत १४ वर्षों से अपने परिवार से विलग हूँ, तो भी कभी कभी मैं भी अपनी पत्नी और बच्चों के विषय में सोचता हूँ। यह स्वाभाविक है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं वापस चला जाऊंगा। यह ज्ञान है। जब मन इन्द्रियतृप्ति के विचारों में चक्कर काटता है तो यह समझना चाहिए कि “यह मोह हैं।” | वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिचार छोड़ना ही पड़ता है। उसे जाना ही पड़ेगा। इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं। पाँच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारु रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए । मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धान्त कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए। तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा। कृष्णभावनामावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। यही सम्यक् कृष्णभावनामृत है।
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शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
श्रीमद्भागवत द्वारा यह पुष्टि होती है कि भौतिक भोग नर तथा नारी के यौन-मिलाप से अधिक कुछ नहीं है। प्रारम्भ में कोई लड़का सोचता है, “वाह! वह लड़की कितनी सुन्दर है” और लड़की कहती है कि लड़का उत्तम है। जब वे मिलते हैं तो भौतिक प्रदूषण अधिक स्पष्ट हो जाता है। और जब वे यौन का आनन्द लूटते हैं तो वे पूरी तरह लिप्त हो जाते हैं। सो कैसे? जैसे ही लड़का तथा लड़की विवाहित हो जाते हैं वे एक कमरा चाहते हैं। फिर उनके बच्चे उत्पन्न होते हैं। तब उनके भी बच्चे होते हैं। जब बच्चा जन्म ले लेता है तो वे सामाजिक मान्यता समाज, मैत्री तथा प्रेम चाहते हैं। इस तरह भौतिक अनुराग बढ़ता जाता है। इन सब में पैसा खर्च होता है। जो व्यक्ति अतीव भौतिकतावादी होता है वह किसी को भी ठग सकता है, किसी का भी वध कर सकता है, रुपया माँग सकता है,उधार ले सकता है या चुरा सकता है, कोई भी बात जो धन ला सके कर सकता है। वह जानता है कि उसका घर, उसका परिवार, उसकी पत्नी और बच्चे सदा सदा विद्यमान नहीं रहेंगे । वे समुद्र के बुलबुले के समान हैं जो उत्पन्न होते हैं और थोड़ी देर में चले जाते हैं। किन्तु वह अत्यधिक अनुरक्त रहता है। धन की खोज के वास्ते वह अपने आध्यात्मिक विकास की बलि कर देता है। "मैं यह शरीर हूँ। मैं इस भौतिक जगत का हूँ। मैं इस देश का हैं. मैं इस जाति का हैं, मैं इस धर्म का हूँ और मैं इस परिवार से सम्बन्धित हूँ।” यह विकृत चेतना बढ़ती ही जाती है। उसका कृष्णभावनामृत कहाँ है? वह इस हद तक फँस जाता है कि उसके लिए धन अपने जीवन से भी अधिक मूल्यवान बन जाता है। चाहे कोई गृहस्थ हो, या श्रमिक, व्यापारी हो या चोर-डकैत, या धूर्त हर व्यक्ति धन के पीछे लगा हुआ हैं। यही मोह है। इस बन्धन में वह अपने को विनष्ट कर देता है।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि इस अवस्था में, जब आप भौतिकतावाद में अत्यधिक लीन हों तो आप कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं कर सकते । इसलिए बालपन से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए । निस्सन्देह चैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे कहते हैं, “कल करे सो आज कर" यद्यपि तुम अपने बालपन से ही कृष्णभावनामृत को शुरू करने से चूक गये हो, किन्तु तुम जैसी भी स्थिति में हो उसे अभी से शुरू कर दो। यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि चूंकि तुमने अपने बचपन से कृष्णभावनामृत नहीं शुरू किया इसलिए तुम उन्नति नहीं कर सकते। वे अत्यन्त कृपालु हैं। उन्होंने हमें यह उत्तम हरे कृष्ण कीर्तन प्रदान किया है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । आप चाहे जवान हों या बूढ़े चाहे आप जो भी हों, बस इसे शुरू कर दें। आप यह नहीं जानते कि आपका जीवन कब समाप्त हो जायेगा। यदि आप निष्ठापूर्वक क्षणभर के लिए भी कीर्तन करते हैं तो इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा। यह आपको महान से महान संकट से, अगले जीवन में पशु बनने से बचा लेगा।
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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हर व्यक्ति पारिवारिक स्नेह से बँधा है। जो व्यक्ति पारिवारिक मामलों में अनुरक्त रहता है वह अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता। स्वभावतः हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करना चाहता है। उसे समाज, मैत्री तथा प्रेम की आवश्यकता होती है। ये आत्मा की माँगे हैं किन्तु वे विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं। मैंने देखा है कि आपके देश के अनेक पुरुषों तथा स्त्रियों का कोई पारिवारिक जीवन नहीं है, बल्कि उन्होंने अपना प्रेम कुत्तो-बिल्लियों पर स्थापित कर रखा है क्योंकि वे किसी न किसी से प्रेम करना चाहते हैं। किन्तु किसी को भी उपयुक्त न पाकर कुत्ते बिल्लियों से प्रेम करने लगते हैं। हमारा कार्य है इस प्रेम को, जिसे कहीं न कहीं स्थापित करना है, कृष्ण पर स्थानान्तरित करना। यही कृष्णभावनामृत है। यदि आप अपने प्रेम को कृष्ण पर स्थानान्तरित करते हैं तो यह सिद्धि है। किन्तु आजकल लोग विचलित हैं तथा ठगे हुए हैं अतएव उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहता कि वे अपना प्रेम कहाँ स्थापित करें अतः अन्त में वे कुत्ते-बिल्लियों पर अपना प्रेम स्थापित करते हैं।
  हर व्यक्ति भौतिक प्रेम से जकड़ा हुआ हैं । भौतिक प्रेम में बहुत आगे बढ़ जाने पर आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पाना बहुत कठिन हैं क्योंकि यह प्रेम का बन्धन अत्यन्त बलशाली होता है। इसलिए प्रह्लाद महाराज प्रस्ताव रखते हैं कि मनुष्य को बाल्य काल से ही कृष्णभावनामृत सीखना चाहिए। जब बालक पाँच-छः वर्ष का हो जाता है जैसे ही उसकी चेतना विकसित हो जाती है उसे प्रशिक्षण पाने के लिए पाठशाला भेज दिया जाना चाहिए। प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि उसकी शिक्षा को प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामावित होना चाहिए। पाँच से लेकर पन्द्रह वर्ष तक की अवधि अत्यन्त मूल्यवान होती है। आप किसी भी बालक को कृष्णभावनामृत का प्रशिक्षण दे सकते हैं और वह इसमें सिद्ध हो जायेगा। | बालक यदि कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित नहीं रहता और उल्टे वह भौतिकतावाद में प्रगति कर लेता है तो उसके लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पाना कठिन है। यह भौतिकतावाद क्या है? भौतिकतावाद का अर्थ है कि इस जगत में हम सारे लोग, आत्माएँ होते हुए भी इस जगत में आनन्द लूटना चाहते हैं। आनन्द आध्यात्मिक जगत में अपने शुद्ध रूप में विद्यमान रहता है। किन्तु हम यहाँ कलुषित आनन्द में हिस्सा बँटाने आये है। जिस तरह मधुशाला का हर व्यक्ति सोचता है कि वह कुछ शराब पीकर आनन्द भोग सकता है। भौतिक भोग का मूल सिद्धान्त यौन है। इसलिए उसे यौन न केवल मानव समाज में मिलेगा अपितु बिल्ली समाज, कुत्ता समाज, पक्षी समाज सर्वत्र ही यौन मिलेगा। दिन में कबूतर कम से कम बीस बार संभोग करता है। यही उसका आनन्द है।
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गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (पारिवारिक मोह)

पारिवारिक मोह
  प्रहलाद महाराज ने अपने मित्रों को बतलाया, “तुम्हें तुरन्त ही कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए।” सारे बालक नास्तिक भौतिकतावादी परिवारों में जन्में थे किन्तु सौभाग्यवश उन्हें प्रहलाद की संगति प्राप्त थी जो अपने जन्म से ही भगवान के महान भक्त थे। जब भी उन्हें अवसर मिलता, और जब अध्यापक कक्षा के बाहर होता तो वे कहा करते, "मित्रो! आओ, हम हरे कृष्ण कीर्तन करें। यह कृष्णभावनामृत शुरू करने का समय है।"
    किन्तु जैसा कि हमने अभी अभी कहा, किसी बालक ने कहा होगा, “किन्तु हम अभी बच्चे हैं। हमें खेलने दीजिये । हम तुरन्त मरने वाले नहीं, अतः बाद में कृष्णभावनामृत शुरू करेंगे।” लोग यह नहीं जानते कि कृष्णभावनामृत सर्वोच्च आनन्द है। वे सोचते हैं कि जो बालक तथा बालिकाएँ इस कृष्णभावनामृत में सम्मिलित हुए हैं। वे मूर्ख हैं। ये प्रभुपाद के प्रभाव से इसमें सम्मिलित हुए हैं और उन्होंने भोगने योग्य अपनी सारी वस्तुएँ छोड़ दी हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। वे सभी बुद्धिमान, शिक्षित बालक बालिकाएँ हैं और अत्यन्त सम्मानित परिवारों से आए हैं। वे मूर्ख नहीं हैं। वे हमारे संघ में सचमुच ही जीवन का आनन्द ले रहे हैं अन्यथा इस आन्दोलन के लिए वे अपना मूल्यवान् समय अर्पित न कर देते। वस्तुतः कृष्णभावनामृत में आनन्दमय जीवन बीतता है लेकिन लोगों को इसका पता नहीं है। वे कहते हैं, “इस कृष्णभावनामृत से क्या लाभ है?” जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति में फँसकर बड़ा होता है तो उसमें से निकल पाना बहुत कठिन होता है। इसलिए वैदिक नियमों के अनुसार पाँच वर्ष की अवस्था से ही विद्यार्थी जीवन में बालकों को आध्यात्मिक जीवन के विषय में शिक्षा दी जाती हैं। इसे ब्रह्मचर्य कहते हैं | एक ब्रह्मचारी परम चेतना कृष्णभावनामृत या ब्रहा अनुभूति प्राप्त करने में अपना सारा जीवन अर्पित कर देता है। । ब्रह्मचर्य के अनेक विधि-विधान हैं। उदाहरणार्थ, किसी का पिता कितना ही धनी क्यों न हो, एक ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में प्रशिक्षित होने के लिए उसकी शरण में एक दास की तरह आता है। यह कैसे सम्भव है? हमें इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है कि अत्यन्त सम्मानित परिवारों के बहुत ही अच्छे बालक यहाँ पर किसी भी तरह का कार्य करने में संकोच नहीं करते। वे थालियाँ धोते हैं, फर्श साफ करते हैं, वे हर कार्य करते हैं। एक शिष्य की माता को अपने बेटे पर आश्चर्य हुआ, जब उसने घर का दौरा किया। इसके पूर्व वह दुकान तक भी नहीं जाता था किन्तु अब वह चौबीसों घन्टे काम में लगा रहता है। जब तक आनन्द की अनुभूति न हो, भला कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत जैसी विधि में क्यों कर लगने लगा? यह केवल हरे कृष्ण कीर्तन करने से ही है। यही हरेकृष्ण मन्त्र हमारी एकमात्र निधि है। मनुष्य एकमात्र कृष्णभावनामृत से प्रसन्न रह सकता हैं। वस्तुतः यह आनन्दपूर्ण जीवन है। किन्तु बिना प्रशिक्षित हुए ऐसा जीवन बिताया नहीं जा सकता।
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बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं)

हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं
  साधारण व्यक्ति बालपन को खेल में बिताता हैं। आप बीस वर्षों तक इसी तरह करते रह सकते हैं। तत्पश्चात् जब आप वृद्ध होते" हैं, तो फिर से बीस वर्षों तक कुछ नहीं कर सकते। जब व्यक्ति वृद्ध हो जाता है तो उसकी इन्द्रियाँ काम नहीं कर सकतीं। आपने अनेक वृद्ध व्यक्तियों को देखा होगा, वे विश्राम करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करते। अभी अभी हमें अपने एक शिष्य का पुत्र मिला है जिसमें सूचित किया गया है कि उसकी दादी को लकवा मार गया है और वह गत साढ़े तीन वर्षों से कष्ट भोग रही है। अतः वृद्धावस्था में अस्सी वर्ष की आयु पार करते ही सारा काम ठप्प हो जाता है। इसलिए प्रारम्भ से लेकर बीस वर्ष की आयु तक सारा का सारा समय नष्ट हो जाता है और यदि आप एक सौ वर्ष तक जीवित भी रहें, तो जीवन की अन्तिम अवस्था के और बीस वर्ष नष्ट हो जाते हैं। इस तरह आपके जीवन के चालीस वर्ष यों ही नष्ट हो जाते हैं। बीच की आयु में यौन-क्षुधा इतनी प्रबल होती है कि इसमें भी बीस वर्ष नष्ट हो जाते हैं। इस तरह बीस, फिर बीस, तब बीस कुल साठ वर्ष नष्ट हो जाते हैं। जीवन का विश्लेषण प्रह्लाद महाराज द्वारा दिया गया है। हम अपने जीवन को कृष्णभावनामृत में अग्रसर करने में न लगाकर उसे चौपट कर रहे हैं।
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मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं)

  
हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं
  यदि आप उन कृष्ण पर पूर्णतया आश्रित है, जो ८४ लाख योनियों के जीवों को भोजन प्रदान करते हैं, तो फिर वे आपको भोजन क्यों नहीं देगे? यह धारणा समर्पण का लक्षण हैं। किन्तु हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि कृष्ण मुझे भोजन दे रहे हैं अतः मैं अब सो || मापको बिना भय के कार्य करना है। आपको कृष्ण के लालन-पालन तथा संरक्षण पर पूरा विश्वास रखते हुए आप को कृष्णभावनामृत में पूरी तरह से लग जाना चाहिए। आइये हम अपनी आयु की गणना करें। इस युग में ऐसा कहा जाता है कि हम अधिक से अधिक एक सौ वर्ष जीवित रह सकते हैं। पहले सतयुग में लोग १ लाख वर्षों तक जीवित रहते थे। अगले युग त्रेता में वे १० हजार वर्षों तक जीते थे और उसके बाद वाले युग, द्वापर में १ हजार वर्षों तक। अब इस कलियुग में यह अनुमान १०० वर्ष का है। किन्तु ज्यों ज्यों कलियुग अग्रसर होता चलेगा, हमारी आयु और भी घटती जायेगी। यह हमारी आधुनिक सभ्यता की तथाकथित उन्नति हैं । हमें इसका बड़ा गर्व रहता है कि हम सुखी हैं और अपनी सभ्यता में सुधार ला रहे हैं। किन्तु इसका परिणाम यह है कि हम भौतिक जीवन का भोग करने का प्रयास तो करते हैं किन्तु हमारी आयु कम होती जा रही है।
  यदि हम यह मान लें कि एक मनुष्य एक सौ वर्षों तक जीवित रहता है और यदि उसे आध्यात्मिक जीवन का कोई ज्ञान नहीं है तो उसका आधा जीवन रात में सोने तथा सम्भोग करने में बीत जाता है। उसकी रुचि अन्य किसी कार्य में नहीं रहती। तो दिन के समय वह क्या करता है? “कहाँ है रुपया? कहाँ है रुपया? मुझे इस शरीर को बनाये रखना है ।" और जब उसके पास धन आ जाता है तो वह कहता है कि क्यों न मैं इसका उपयोग अपनी पत्नी और बच्चों पर करूँ? तो फिर उसकी आध्यात्मिक अनुभूति कहाँ रही? रात में वह अपना समय सोने में तथा संभोग करने में बिताता है और दिन में धन अर्जित करने के लिए वह कठोर श्रम करता है। क्या जीवन में उसका यही उद्देश्य है? ऐसा जीवन कितना भयावह है।
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सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं)

हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं 
आखिर कब तक हम ऐसा करें? जब तक यह शरीर कर्म कर सकता है। हम यह नहीं जानते कि यह कब काम करना बन्द कर देगा । महान संत परीक्षित महाराज को तो सात दिन की मोहलत मिली थी, “एक सप्ताह में तुम्हारा शरीर-पात हो जायेगा।” किन्तु हम नहीं जानते कि हमारा शरीर-पात कब हो जायेगा। हम जब भी सड़क पर होते हैं तो अकस्मात् दुर्घटना हो सकती है। हमें सदैव तैयार रहना चाहिए। मृत्यु सदैव उपस्थित रहती है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हर कोई मर रहा है किन्तु मैं तो जीवित रहुँगा । यदि हर कोई मरता है तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आपके बाबा मरे हैं, पर बाबा मरे हैं, अन्य सम्बन्धी गण भी मरे हैं तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आप भी मरेंगे। आपकी सन्तानें भी मरेंगी। अतएव इसके पूर्व कि मृत्यु आए, जब तक यह मानव बुद्धि है हम कृष्णभावनामृत में जुट जाएँ। प्रह्लाद महाराज की यही संस्तुति है। | हम नहीं जानते कि यह शरीर कब काम करना बन्द कर दे अतएव हमें तुरन्त ही कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त होकर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए। “किन्तु यदि मैं तुरन्त कृष्णभावनामृत में लग जाऊं तो मेरी जीविका कैसे चलेगी?” इसकी व्यवस्था है। मुझे आपल्लोरों से अपने एक शिष्य के विश्वास के बारे में बताते हुए प्रसन्नता हो रही हैं। उससे असहमत शिष्य ने कहा, “तुम इसकी देखरेख नहीं करते कि प्रतिष्ठान को कैसे चलाया जाय।” इसपर उसने उत्तर दिया “अरे! कृष्ण सब पूरा करेंगे।” यह अति उत्तम विचार है। इसे सुनकर मैं हर्षित हुआ । यदि कुत्ते, बिल्ली तथा सुअर भोजन पा सकते हैं तो क्या कृष्ण हमारे भोजन का भी प्रबन्ध नहीं करेंगे? यदि हम पूरी तरह कृष्णभावनाभावित हों और उनकी सेवा करते हों। क्या कृष्ण कृतघ्न हैं? नहीं।
  भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं, “हे अर्जुन! मैं सबों पर समभाव रखता हैं। किसी से ईर्ष्या नहीं करता, और न ही कोई मेरा विशेष मित्र है किन्तु जो कृष्णभक्ति में लगा रहता है उसका मैं विशेष ध्यान रखता हूँ। चूंकि एक छोटा बालक अपने माता-पिता पर पूरी तरह आश्रित रहता हैं अतएव वे उस बालक पर विशेष ध्यान रखते हैं। यद्यपि माता-पिता सारे बालकों पर समान रूप से दयालु होते हैं किन्तु ये छोटे छोटे बालक, जो सदैव "माँ, माँ” चिलाते रहते हैं, उनपर विशेष ध्यान दिया जाता है। “क्या है मेरे लाल?" हाँ। यह स्वाभाविक हैं।
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रविवार, 30 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं)

  
हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं
तएव हमें अपनी इन्द्रियों को भौतिक सुख बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के इच्छुक न बनकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके आध्यात्मिक सुख पाने का प्रयास करना चाहिए। जैसा कि प्रह्लाद महाराज कहते हैं, "यद्यपि इस मानव शरीर में तुम्हारा जीवन क्षणिक हैं किन्तु है अत्यन्त मूल्यवान । अतएव अपने भौतिक इन्द्रियभोग को बढ़ाने का प्रयास करने की अपेक्षा तुम्हारा कर्तव्य होता है कि अपने कायों को किसी न किसी तरह कृष्णभावनामृत से जोड़ा। - मनुष्य शरीर से ही उच्चतर बुद्धि आती है। चूंकि हमें उच्चतर चेतना मिली है इसलिए जीवन में हमें उच्चतर आनन्द के लिए प्रयत्न करना चाहिए यह आध्यात्मिक आनन्द है। इस आध्यात्मिक आनन्द को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् की सेवा में लीन रहे क्योंकि वे ही भक्ति रूपी आनन्द प्रदान करने वाले हैं। हमें अपना ध्यान कृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने में लगाना चाहिए जो हमें इस भौतिक जगत से उद्धार करने वाले हैं।
  किन्तु क्या हम इस जीवन में आनन्द नहीं ले सकते और अगले जीवन में कृष्ण की सेवा में अपने को लगा दें? प्रह्लाद महाराज का उत्तर है, "अब हम भौतिक पाश में हैं। इस समय मुझे यह शरीर मिला है किन्तु कुछ वर्षों बाद मैं यह शरीर त्याग कर अन्य शरीर धारण करने के लिए बाध्य होऊँगा। एक बार एक शरीर पा लेने पर तथा अपने शरीर की इन्द्रियों के आदेशानुसार भोग करने पर हम दूसरे शरीर के लिए तैयार होते हैं और यह दूसरा शरीर अपनी इच्छा के अनुसार प्राप्त करते हैं।" इसकी कोई गारंटी नहीं हैं कि आपको मनुष्य शरीर ही मिले| यह तो आपके कर्म पर निर्भर करेगा। यदि आप देवता की तरह कर्म करेंगे तो आपको देवता का शरीर प्राप्त होगा और यदि आप कुत्ते की तरह कर्म करेंगे तो कुत्ते का शरीर मिलेगा। मृत्यु के समय आपका भाग्य आपके हाथ में नहीं होता यह प्रकृति के हाथ में होता है। यह हमारा धर्म नहीं की हम यह सोचें कि हमें गला कौन सा शरीर मिलेगा। इस समय तो हम इतना ही समझ ले कि यह मनुष्य शरीर हमारी आध्यात्मिक चेतना, हमारे कृष्णभावनामृत को विकसित करने का अच्छा सुअवसर है। इसलिए हमें तुरन्त कृष्ण की सेवा में जुट जाना चाहिए। तभी हम प्रगति कर सकेंगे।
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शनिवार, 29 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  इस भौतिक जगत में जीव एक आध्यात्मिक प्राणी है, किन्तु उसमें आनन्द लूटने की भौतिक शक्ति का उपयोग करने की प्रवृत्ति होती है इसलिए उसे शरीर प्राप्त हुआ है। जीवों की ८४ लाख योनियाँ हैं। और हर योनि का पृथक शरीर है। शरीर के अनुसार ही उनमें विशिष्ट इन्द्रियाँ होती हैं जिनसे वे किसी विशेष आनन्द को भोग सकते हैं। मान लीजिये कि आपको एक कैंटीली झाड़ी दे दी जाय और कहा जाय, देवियो और सज्जनो! यह अत्युत्तम भोजन है। यह ऊँटों द्वारा प्रमाणित है। यह अति उत्तम है।” तो क्या आप इसे खाना पसन्द करेंगे? "नहीं, आप यह क्या व्यर्थ की वस्तु मुझे दे रहे हैं? आप कहेंगे चूँकि आपको ऊँट से भिन्न शरीर मिला हुआ है अतएव आपको कैंटीली झाड़ी नहीं भाती। किन्तु यही झाड़ी ऊँट को दे दी जाय तो वह सोचेगा कि यह तो अत्युत्तम आहार है।
  यदि सुअर तथा ऊँट बिना किसी विकट संघर्ष के इन्द्रियतृप्ति का भोग कर सकते हैं तो हम मानव प्राणी क्यों नहीं कर सकते? हम कर सकते हैं किन्तु यह हमारी चरम उपलब्धि नहीं होगी चाहे वह सुअर हो या ऊँट अथवा मनुष्य, इन्द्रियतृप्ति भोगने की सुविधाएँ प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं। अतएव वे सुविधाएँ जो आपको प्रकृति के नियम द्वारा मिलनी है उनके लिए आप श्रम क्यों करें ? प्रत्येक योनि में शारीरिक माँगों की तुष्टि प्रकृति द्वारा व्यवस्थित होती है। इस तृप्ति की व्यवस्था उसी तरह की जाती है जिस तरह दुःख की व्यवस्था रहती है। क्या आप चाहेंगे कि आपको ज्वर चढ़े? नहीं। ज्चर क्यों चढ़ता है? मैं नहीं जानता। किन्तु यह चढ़ता है, है न! क्या आप इसके लिए प्रयास करते हैं? नहीं। तो यह चढ़ता कैसे है? प्रकृति से। यही एकमात्र उत्तर है। यदि आपका कष्ट प्रकृति द्वारा प्रदत्त है तो आपका सुख भी प्रकृतिजन्य है। इसके विषय में चिन्ता मत करें। यही प्रस्ताव महाराज का आदेश है। यदि आपको बिना प्रयास के ही जीवन में कष्ट मिलते हैं तो सुख भी बिना प्रयास के प्राप्त होगा।  तो इस मनुष्य जीवन का असली प्रयोजन क्या है? “कृष्णभावनामृत का अनुशीलन।” अन्य सारी वस्तुएँ प्रकृति के नियमों द्वारा, जो कि अन्ततः ईश्वर का नियम है, प्राप्त हो जायेंगी। यदि मैं प्रयास न भी करूं तो मुझे अपने विगत कर्म तथा शरीर के कारण, जो भी मिलना है, वह प्रदान किया जायेगा। अतएव आपकी असली चिन्ता मनुष्य जीवन के उच्चतर लक्ष्य को खोज निकालने की है।
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है। जिस तरह हम हाथ या अँगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है, उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा विधि है। भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है। अंगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं। जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहाँ आये तो वह तुरन्त आ जाता है और ज्योंही मैं चाहता हूँ कि अँगुली ढोल बजाये, वह बजाने लगती है। यह प्राकृतिक स्थिति है। इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए ईश्वर की खोज करते हैं किन्तु माया के जादू के कारण हम इसे जान नहीं पाते । यही हमारी भूल है। मनुष्य जीवन में हमें यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्थिति को समझें । चूँकि आप सभी मानव प्राणी हैं। इसीलिए कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का असली लक्ष्य है। मैं कुत्ते-बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए नहीं बुला सकता। यही अन्तर है मानव प्राणियों तथा कुत्ते-बिल्लियों में । मानव प्राणी जीवन के असली लक्ष्य को प्राप्त करने की आवश्यकता समझ सकता है। किन्तु यदि वह इस सुअवसर को हाथ से जाने देता है तो इसे महान् अनर्थ समझना चाहिए।
   प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “ईश्वर सर्वाधिक प्रिय पुरुष हैं । हमें उनकी खोज करनी चाहिए | तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं, “तुम लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे पड़े हो किन्तु इन्द्रियतृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही हो जाती है।” चूँकि सुअर को एक शरीर मिला है। अतएव उसकी इन्द्रियतृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सबों के लिए सबसे घृणित वस्तु है। आप दुर्गन्ध से बचने के लिए शौच के तुरन्त बाद वहाँ से चल देते हैं लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता हैं । ज्योंही आप शौच कर चुकते हैं वह तुरन्त उसका आनन्द उठाता है। अतएव शरीर के विविध प्रकारों के अनुसार इन्द्रियतृप्ति भिन्न भिन्न होती है । इन्द्रियतृप्ति प्रत्येक देहधारी को होती है। ऐसा कभी मत सोचें कि मल खाने वाले सुअर दुखी हैं। नहीं। वे इस तरह से मोटे बनते हैं। वे अत्यन्त सुखी है। दूसरा उदाहरण ऊँट का है। ऊँट कंटीली झाड़ियों का शौकीन होता है। क्यों? क्योंकि जब वह कंटीली झाड़ियाँ खाता है तो झाड़ियाँ उसकी जीभ को काट देती हैं, जिससे रक्त चूने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है। तब वह सोचता है, “मैं आनन्द पा रहा हूँ।” यही इन्द्रियतृप्ति है। यौन जीवन भी ऐसा ही हैं। हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते हैं कि आनन्द लूट रहे हैं। यही हमारी मूर्खता है।
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गुरुवार, 27 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  आत्मा शब्द का मोटा अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन या बुद्धि ही आत्मा है। स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में हम मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं। किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक लोकों के ऊपर, जहाँ का वातावरण आध्यात्मीकृत है।
हम यह समझ सकते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् “मैं यह मन-बुद्धि या शरीर नहीं हैं-मैं तो आत्मा हूँ भगवान् का भिन्नांश ।" यही है। असली समझ या ज्ञान का स्तर या पद।
   प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं। इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं। जब बालक रोता है तो वह क्या चाहता है? अपनी माता । किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती। स्वभावतः उसका शरीर उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता हैं अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। बालक अन्य किसी स्त्री को नहीं चाहेगा। बालक रोता है किन्तु जब वह स्त्री, जो बालक की माँ होती है, आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक चुप हो जाता है। यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नहीं होती किन्तु अपनी माता से उसका सम्बन्ध प्रकृति का नियम है। इसी तरह हम स्वभावतः शरीर की रक्षा करना चाहते हैं। यह आत्मसंरक्षण हैं। यह जीव का प्राकृतिक नियम है जिस प्रकार भोजन एक प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है । तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करूँ? क्योंकि इस शरीर के भीतर आत्मा हैं।
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बुधवार, 26 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
  जिन्होंने भगवद्गीता का पारायण किया है, उन्हें पाँचवें अध्याय में यह उत्तम श्लोक मिला होगा, “यदि आप शान्ति चाहते हैं तो आपको समझना होगा कि इस लोक की तथा अन्य लोकों की हर वस्तु कृष्ण की सम्पत्ति है, वे ही हर वस्तु के भोक्ता हैं एवं वे ही हर एक के परम मित्र हैं। तो फिर तपस्या क्यों की जाय? क्यों धार्मिक अनुष्ठान किये जायें? क्यों दान दिया जाय? ये सारे कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं तो आपको फल मिलता है। आप चाहे उच्चतर भौतिक सुख की कामना करते हों या आध्यात्मिक सुख की; आप चाहे इस लोक मैं श्रेष्ठतर जीवन बिताना चाहते हों या अन्य लोक में। यदि आप भगवान् को प्रसन्न कर लेते हैं तो आप उनसे मनवांछित फल प्राप्त कर सकेंगे। इसीलिए वे अत्यन्त निष्ठावान् मित्र हैं। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु नहीं चाहता जो भौतिक रूप से कलुषित हो।
  भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि केवल पुण्य कर्मों से मनुष्य सर्वोच्च लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है। जहाँ पर जीवन की अवधि (आयु) करोड़ों वर्ष है। आप वहाँ जीवन-अवधि का अंदाज नहीं लगा सकते, आपका सारा गणित व्यर्थ हो जाती है। भगवद्गीता में कहा गया है कि ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्थ है कि हमारे ४,३२,००,००,००० वर्ष उनके बारह घंटों के तुल्य हैं। कृष्ण कहते हैं, “तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद चाहने पर प्राप्त कर सकते हो जहाँ पर जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी। किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो तो तुमको इस कष्ट प्रद भौतिक जगत में फिर से नहीं आना होगा।” । प्रह्लाद महाराज यही बात कहते हैं, “हमें अपने सर्वप्रिय मित्र, कृष्ण की खोज करनी चाहिए" वे हमारे सर्वप्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वभाव से प्रिय हैं। क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वप्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वप्रिय वस्तु हैं। उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाय तो मैं तुरन्त अपनी रक्षा के विषय में सोचूंगा कि मैं अपने को किस तरह बचा सकता हूँ। तब हम अपने मित्रों और अपने सम्बन्धियों तक को भूल जाते हैं और यही धुन रहती हैं कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ। आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है।
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)


सर्वप्रिय पुरुष
     श्रीमद्भागवत भागवत-धर्म प्रस्तुत करता है अर्थात् ईश्वर विषयक वैज्ञानिक ज्ञान तक ले जाता है। भागवत का अर्थ है, “भगवान् और धर्म का अर्थ है “विधि-विधान ।” यह मानव जीवन सुदुर्लभ है। यह एक महान सुयोग हैं। इसीलिए प्रह्लाद कहते हैं, “मित्रो! तुमलोग सभ्य मनुष्यों के रूप में उत्पन्न हुए हो अतः तुम्हारा यह मनुष्य-शरीर क्षणभंगुर होते हुए भी महानतम सुयोग है। कोई भी व्यक्ति अपनी अवधि नहीं जानता। ऐसी गणना की जाती है कि इस युग में मनुष्य शरीर एक सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कलियुग आगे बढ़ता जाता है, यह जीवन अवधि (आयु), स्मृति, दया, धार्मिक तथा अन्य ऐसी ही विभूतियाँ घटती जाती है। अतएव इस युग में किसी को भी दीर्घ आयु का भरोसा नहीं हैं। । यद्यपि मनुष्य के स्वरूप क्षणिक हैं फिर भी इसी मनुष्य रूप में आप जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। वह सिद्धि क्या है? सर्वव्यापक भगवान को जान लेना। अन्य योनियों में यह सम्भव नहीं है। चूंकि हम क्रमिक विकास द्वारा यह मनुष्य स्वरूप प्राप्त करते हैं इसलिए यह दुर्लभ हैं। प्रकृति के नियमानुसार आपको अन्ततः मनुष्य-शरीर दिया जाता है जिससे आप आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करके भगवद्धाम वापस जा सकें। | जीवन का चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु या कृष्ण हैं। बाद के श्लोक में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “इस भौतिक जगत के जो लोग भौतिक शक्ति (माया) द्वारा मोहित होते रहते हैं, वे यह नहीं जानते कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है? क्यों ? क्योंकि वे भगवान् की ज्वलन्त माया द्वारा मोहित हैं। वे यह भूल चुके हैं कि जीवन तो सिद्धि के चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु को समझने के लिए मिला है।” विष्णु या ईश्वर को समझने के लिए हमें क्यों अतीव उत्सुक होना चाहिए? प्रह्लाद महाराज कारण बतलाते हैं, “विष्णु सर्वप्रिय पुरुष हैं। हम उन्हें ही भूल चुके हैं। हम सभी किसी प्रिय मित्र की तलाश में रहते हैं हर व्यक्ति इसी तरह तलाश करता है। पुरुष स्त्री के साथ प्रिय मैत्री करना चाहता है और स्त्री पुरुष से मैत्री करना चाहती है। या फिर एक पुरुष अन्य पुरुष को खोजता है और एक स्त्री अन्य स्त्री को खोजती है। हर व्यक्ति किसी न किसी प्रिय, मधुर मित्र की तलाश में रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि हम ऐसे प्रिय मित्र का सहयोग चाहते है जो हमारी सहायता कर सके। यह जीवन-संघर्ष का अंग है और यह स्वाभाविक है। किन्तु हम यह नहीं जानते कि भगवान् विष्णु हमारे सर्वप्रिय मित्र हैं।
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सोमवार, 24 सितंबर 2018

प्रहलाद महाराज जी के उपदेश (सर्वप्रिय पुरुष)

सर्वप्रिय पुरुष
     ज मैं आप लोगों से एक बालक भक्त की कथा कहूँगा जिनका नाम प्रह्लाद महाराज था। वे घोर नास्तिक परिवार में जन्मे थे। | इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य हैं-असुर तथा देवता। उनमें अन्तर क्या है? मुख्य अन्तर यह है कि देवता भगवान् के प्रति अनुरक्त होते हैं जबकि असुरगण नास्तिक होते हैं। वे ईश्वर में इसलिए विश्वास नहीं करते क्योंकि वे भौतिकतावादी होते हैं। मनुष्यों की ये दोनों श्रेणियाँ इस संसार में सदैव विद्यमान रहती हैं। कलियुग (कलह का युग) होने से सम्प्रति असुरों की संख्या बढ़ी हुई है किन्तु यह वर्गीकरण सृष्टि के प्रारम्भ से चला आ रहा है। आपलोगों से मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ वह सृष्टि के कुछ लाख वर्षों बाद घटी। । प्रह्लाद महाराज सर्वाधिक नास्तिक एवं सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के पुत्र थे। चूंकि उस समय का समाज भौतिकतावादी था अतएव इस बालक को भगवान के महिमा-गायन का अवसर ही नहीं मिलता था। महात्मा का लक्षण यह होता है कि वह भगवान् की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता है। उदाहरणार्थ, जीसस क्राइस्ट ईश्वर की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे किन्तु आसुरी लोगों ने उन्हें गलत समझा और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया।
     जब प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के थे तो उन्हें पाठशाला भेजा गया। ज्योंही मनोरंजन का समय आता और शिक्षक बाहर चला जाता, वे अपने मित्रों से कहते, “मित्रो! मेरे पास आओ। हमलोग कृष्णभावनामृत के विषय में बातें करेंगे। यह दृश्य श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध के छठे अध्याय में वर्णित है। भक्त प्रह्लाद कहते हैं, मित्रो! बाल्यावस्था का यह समय कृष्णभावनामृत अनुशीलन करने का है।" और उसके कम आयुवाले मित्र उत्तर देते हैं, “ओह! हम तो खेलेंगे। हम कृष्णभावनामृत क्यों ग्रहण करें?" प्रत्युत्तर में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, “यदि तुम लोग बुद्धिमान हो तो बचपन से ही भागवत-धर्म शुरू करो ।”
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शनिवार, 15 सितंबर 2018

भक्तों की तीन श्रेणियां

भक्तों की तीन श्रेणियां
भक्तों की तीन श्रेणियां होती हैं । एक तो वे होते हैं जो किसी फल की कामना से भगवान को भजते हैं । भगवान कहते हैं - उनकी भक्ति वास्तविक भक्ति नहीं, वह तो एक प्रकार की स्वार्थपरायणता है ।

बुधवार, 7 मार्च 2018

कर्मी और ज्ञानी के प्रति कृपा से गौण भक्ति पथ का विधान

कर्मी और ज्ञानी के प्रति कृपा से गौण भक्ति पथ का विधान
     भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु जी को नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे गौरहरि ! आप दया के सागर हो और जीवों के ईश्वर हो | कर्मी, ज्ञानी और जीवों के उद्धार के लिए भी आप तत्पर रहते हो | कर्म - मार्ग और ज्ञान -मार्ग पर चलने वाले पथिक का भी उद्धार करने के लिए आप यतन करते हो | उस पथ पथिकों के मंगल की चिन्ता करते हुए आपने एक गौण भक्ति - मार्ग भी बना रखा है | (क्रमशः) 
(हरिनाम चिन्तामणि)
पहला अध्याय
पृष्ठ 7
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