॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
आत्मा भाग (1)
समस्त प्राणियों में जितने भी शरीर हैं, उन समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है| शरीर के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में भेद नहीं है, वह आत्मा सदा ही अवध्य है, उसका किसी भी साधन से कोई भी नाश नहीं कर सकता| आत्मा सदा सर्वदा अविनाशी है, उसका नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है| आत्मा के यथार्थ रूप को ना जानने के कारण ही मनुष्य का समस्त पदार्थों में विषम भाव हो रहा है| जब आत्मा के यथार्थ रूप को समझ लेने पर उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता और एक सच्चिदानन्द घन ब्रह्मा से भिन्न किसी में भेद बुद्धि ही कैसे हो सकती है| प्राणियों के मरने में और जीवित रहने में जो भेद प्रतीत होता है, वह अज्ञान जनित है| आत्म ज्ञानी धीर पुरुषों में यह भेद बुद्धि नहीं रहती, क्योंकि आत्मासम, निर्विकार और नित्य है| जन्म-जमान्तर में किये हुये शुभाशुभ कर्मों के सस्कारों से जीव बन्धा है तथा इस मनुष्य शरीर में पुनः अहंता, ममता आसक्ति और कामना से नम-नम कर्म करके और भी अधिक जकड़ता जाता है| अतः यहाँ तक जीवात्मा को बार बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म-मृत्यु रुपी संसार चक्र में घूमना पड़ता है| आत्मा रथी है बुद्धि उसकी सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और शब्दादि विषय ही मार्ग है| वास्तव में रथी के आधीन सारथी, सारथी के आधीन लगाम और लगाम के आधीन घोड़ों का होना ठीक ही है| तथापि जिसका बुद्धि रुपी सारथी विवेक ज्ञान से सर्वथा शून्य है, मन रुपी लगाम जिसने नियमानुसार नहीं पकड़ी हुई है, ऐसे जीवात्मा रुपी रथी के इन्द्रिय रुपी घोड़े उसे दुष्ट घोड़ों की भान्ति विषय मार्ग में ले जाकर गड्ढ़े में डाल देते हैं| इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर जीवात्मा का आधिपत्यै नहीं होता वह अपने को भूलकर उनके आधीन हा करता है| काम को मारने की शक्ति आत्मा में मौजूद है| मनुष्य यदि अपने आत्म बल को समझ जाए तो वह बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर सहज ही अपना पूर्ण अधिकार स्थापन करके काम को मार सकता है| आत्मस्वरूप को भली-भान्ति समझना ही काम को मारने का प्रधान कार्य है|
गुण विज्ञान और कर्म विभाग से आत्मा सर्वथा अलग है| आत्मा का इससे ज़रा भी सम्बन्ध नहीं है| आत्मा सर्वथा निर्गुण, निराकार, निर्विकार, नित्य शुद्ध और ज्ञान स्वरूप है| इस तत्व को समझ लेना ही गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानना है| आत्म तत्व बहुत ही गूढ़ है| महापुषों द्वारा समझाये जाने पर कोई सूक्ष्मदर्शी मनुष्य ही इसे समझ सकता है| कठोपनिषद् में कहा गया है कि सब भूतों के अन्दर छुपा हुआ यह आत्मा उनके प्रत्यक्ष नहीं होता, केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा इसे प्रत्यक्ष कर सकते हैं|
जैसे आकाश बादलों में स्थित होने पर भी उनका कर्ता नहीं बनता और शरीरों से लिप्त भी नहीं होता| जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त प्राणियों के भीतर प्रकाशित होती है| सबको सत्ता-स्फूर्ति देती है तथा भिन्न-भिन्न अन्तःकरणों के सम्बन्ध से भिन्न-भिन्न शरीरों में उनका भिन्न-भिन्न प्राकट्य होता-सा देखा जाता है,ऐसा होने पर भी वह आत्मा सूर्या की भान्ति न तो उनकों कर्मों का करने वाला और ना करवाने वाला ही होता है, तथा ना दैत भाव या वैषभ्यादि दोषों से युक्त होता है| वह अविनाशी आत्मा प्रत्येक अवस्था में सदा-सर्वदा शुद्ध, विज्ञानस्वरूप, अकर्त्ता, निर्विकार, सैम और निरंजन ही रहती है|
काम, क्रोध, और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं, अतःएव इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये| आत्मा का यथार्थ स्वरूप शुद्धत्व, निश्पापत्त्व, एकत्व, अशरीरत्व और स्वर्ग तत्व आदि हैं| सबका ईशान् (शासन) करने वाले परमेश्वर परमात्मा हैं| वाही सब जीवों का आत्मा होकर अन्तर्यामी रूप में सबका शासन करता है|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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