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बुधवार, 11 मई 2016

भक्त व वैष्णव रक्षक श्री हरि

॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
 

आप सभी वैष्णवों के लिए श्री हरि चर्चा आज से रोज़ प्रस्तुत की जायेगी | आप सभी वैष्णवों से हाथ जोड़कर प्रार्थना हैं कि इस कार्य में हमारा सहयोग दें एवं किसी भी प्रकार कि त्रुटि के लिए हम सर्वप्रथम भगवान् श्री कृष्ण जी से तत्पश्चात आप सभी वैष्णवों से क्षमा याचना करते हैं |

भगवद् तत्व पुराणो से 
ॐ पूर्ण मद: पूर्णा मिदं पूर्णात्पूर्णमुदचयते। 
पूर्णस्य       पूर्णमदाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ  शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
ॐ वह (पर ब्रह्मा) पूर्ण है और यह (कार्य ब्रह्मा) भी पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण कि उत्पत्ति होती है तथा (प्रलयकाल) में पूर्ण (कार्य ब्रह्मा ) का पूर्णत्व लेकर (अपने में लीन करके) त्रिविध की शांति हो । पूर्ण (पर ब्रह्मा) ॐ ही बच रहता है । 
भगवान् श्री कृष्ण के प्रिय मंत्र 
(1) ॐ नमो भगवते रासमंडलेशाय स्वाहा ।
(2) पाँच ब्राह्मणों द्वारा नारद को जो कृष्ण मंत्र दिया गया है,वह इस प्रकार है। 'ॐ श्री भगवते रासमण्डलेश्वराय श्री कृष्णाय स्वाहा'
(3) ॐ कृष्णाय स्वाहा । यहां स्वाहा अग्नि की पत्नी है । 
(4) 'श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः'
(5) श्री हरि का षोडशाक्षर मन्त्र - 'ॐ ह्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै हरि प्रियायै स्वाहा
(6) सिद्धमन्त्र - ॐ सरर्वेश्वरेश्वराय सर्वधिनविनाशिने मधुसूदनाय स्वाहा
(7) महालक्ष्मी का सिद्ध मन्त्र- ॐ श्री कमलवासिन्यै स्वाहा

भक्त व वैष्णव रक्षक श्रीहरि- भगवान् श्री हरि कहते हैं- कि मैं वैष्णवों के प्राण हूँ और वैष्णव मेरे प्राण हैं। जो मूढ़ उनसे द्वेष करता है वह मेरे प्राणों का हिंसक है। जो अपने पुत्रों,पौत्रों पत्नी व राज्य और लक्ष्मी को भी त्यागकर सदा मेरा ही ध्यान करते हैं, उनसे बढ़कर मेरा प्रिय कौन हो सकता है? भक्त से बढ़कर न मेरे प्राण हैं, न लक्ष्मी है, न ही शिव हैं, न सरस्वती है न ब्रह्मा है, न पार्वती है, न गणेश है। ब्राह्मण, वेद और वेदमाता सरस्वती भी मेरी दृष्टि में भक्तों से बढ़कर नहीं है।जो मेरे प्राणाधिक भक्तों से द्वेष करते हैं, उनको मैं शीघ्र ही दंड देता हूँ और परलोक में भी चिरकाल तक नरक यातना भोगनी पड़ती है। मैं उसकी उत्पत्ति का कारण तथा सबका ईश्वर और सबका पारिपालक हूँ। सर्वव्यापी एवं स्वतन्त्र हूँ, तथापि दिन रात भक्तों के आधीन रहता हूँ। गोलोक में द्विभुज रूप है और बैकुण्ठ में चतुर्भज। यह रूप मात्र ही उन उन लोकों में रहता है, किन्तु मेरे प्राण तो सदा भक्तों के समीप ही रहते हैं। भक्त का दिया हुआ अन्न साधारण हो तो मेरे लिए सादर भक्षण करने योग्य है। परन्तु अभक्त का दिया हुआ अमृत के सामान मधुर द्रव्य भी मेरे लिए अभक्ष्य है।
भगवान् श्री कृष्ण के दो रूप- भगवान् श्री कृष्ण के मुख्य दो रूप हैं,द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज में वह बैकुण्ठ में निवास करते हैं और द्विभुज में गोलोक धाम में निवास करते हैं। चतुर्भुज की पत्नी महालक्ष्मी,महासरस्वती गँगा और तुलसी हैं। ये चारों देवियाँ नारायण देव की प्रिया हैं और उनके अर्धांग से प्रकट हुई हैं। वे तेज अवस्था,रूप तथा गुण सभी दृष्टियों से उनके अनुरूप हैं। विद्वान पुरुष को पहले 'राधा' का नाम उच्चारण करके तत्पश्चात 'कृष्ण' का नाम उच्चारण करना चाहिए। इस क्रम का उलटफेर करने से वह पाप का भागी होता है।
कृष्ण शब्द की व्याख्या- 'कृष' का अर्थ है भगवान की भक्ति और 'न' का अर्थ है उनका 'दास्या' अतः जो अपनी भक्ति और दास्यभाव देने वाला है वे कृष्ण कहलाते हैं। 'कृष' स्वार्थ वाचक है, 'न' शब्द से बीज अर्थ की उपलब्धि होती है। अतः सर्वबीज स्वरूप परब्रह्मा परमात्मा कहें गये हैं।

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भगवान् श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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