वर्ल्ड ऑफ़ कृष्ण ब्लॉग में आपका हार्दिक स्वागत है । श्री कृष्ण जी के ब्लॉग में आने के लिए आपका कोटि कोटि धन्यवाद । श्री कृष्ण जी की कृपा आप सब पर सदैव बनी रहे ।

वर्ल्ड ऑफ़ कृष्ण में आपकी आगन्तुक संख्या

मंगलवार, 17 मई 2016

आत्मा भाग (3)

॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि


आत्मा भाग (3)
    ईश्वर द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है| जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के जन्म-मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है|
जीव को जन्म-मरण रूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यास के कारण प्राप्त होता है| आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है| इस जन्म-मृत्यु से संसार का कोई दूसरा कारण नहीं है. केवल आत्मा ही मूल कारण है| इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को आत्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिये|

    जब तक परतन्त्रता है, तब तक ईश्वर से भय बना ही रहता है| जो मैं और मेरेपन के भाव से ग्रस्त होकर आत्मा की अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करने वाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है| जब माया के गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझे आत्मा को ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों के निरूपण करने लगते हैं| ये सब मायामय हैं, वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ|

    भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्यों का मन कर्म संस्कारों का पुंञ्ज है| उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं| इसी का नाम है लिंग शरीर| उन्हीं कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता-जाता रहता है| आत्मा इस लिंग शरीर से सर्वथा पृथक है| उसका-आना जाना नहीं होता, परन्तु जब वह अपने को केवल लिंग शरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना आना-जाना प्रतीत होने लगता है| अज्ञानी पुरुष प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते| वे उसे उनसे तत्वतः अलग अनुभव करते और विषय भोग में सदा सुख भोगने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं| इसी कारण उन्हें जन्म-मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है|

    आत्मा का विषयानुभव रूप भी सर्वथा असत्य है| आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुध-युक्त स्वबाव की ही है| विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता है, उसका यह जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र कभी निवृत नहीं होता| मनुष्य इस शरीर के लिये किसी से भी वैर न करे| ऐसा वैर तो पशु करते हैं| जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखाई देता है, वैसे ही एक परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में स्थित है| सबकी आत्मा तो एक ही है, पञ्चभूतों से बने हुए शरीर सबके एक ही हैं, क्योकि वे सब पञ्चभौतिक ही तो हैं| ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर विरोध है|

    भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि संसार का आस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा का सम्बन्ध भ्रान्ति है, तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य सा स्फुरित होता है| जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं परन्तु वास्तव वे नहीं हैं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उसका आस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत  होने वाले विषयों का चिन्तन करते हैं, उनके जन्म मृत्यु रूप संसार की निवृत्ति नहीं होती| जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटने से पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है, तब न तो स्वप्न की विपत्तियाँ रहती हैं और न उसके कारण होने वाले मोह आदि विकार| अहंकार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्वप्न और जन्म-मृत्यु का शिकार बना रहता है| आत्मा से तो इसका कोई सम्बन्ध नहीं है| आत्मा और अनात्मा के स्वरूप को पृथक- पृथक भली-भान्ति समझ सेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का आस्तित्व मिट जाता है|

    भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मविचार के साधन है- श्रवन, मनन, निधिध्सासन और स्थानुभूति| उनमें सहायक हैं- आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्ट रूप से देहादि अनात्मक प्दार्तों का निषेद कर देना चाहिये| इस प्रकार निषेद के द्वारा आत्मतविषयक सन्देहों को छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्द स्वरूप आत्मा में ही मग्न हो जाये और सब प्रकार की विषय वासनाओं से रहित हो जाये| निषेद करने की प्रक्रिया यह है की पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं है| इन्द्रिय उनके देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि एवं मन की आत्मा नहीं हैं, क्योंकि इसका धारण-पोषण शरीर से समान की अन्न के द्वारा होता है| बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, पृथ्वी शब्दादि विषय और गुणों की समस्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं है, क्योंकि वे सब के सब सदृश्य एवं जड़ हैं| सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते, वह तो इनसे सर्वथा परे हैं|

********************************************************* 
भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
*********************************************************
        
Please Visit:
Our Blog: Click Here
Our Facebook Timeline: Click Here
Our Facebook Group: Click Here
Our Facebook Page: Click Here
Our Youtube Channel: Click Here