॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
आत्मा भाग (2)
आत्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयम्भू (स्वयं ही होने वाला) है| नित्य सिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिये यथायोग्य रीति के अर्थों (कर्तव्यों अथवा पदार्थों) का विभाग किया है| पण्डितों की दृष्टि में एक सच्चिदानन्द घन ब्रह्मा ही नित्य और सत् वस्तु है| उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है| वही सबका आत्मा है, उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता और शरीर अनित्य है, वह रह नहीं सकता तथा आत्मा और शरीर का संयोग-वियोग व्यवहारिक दृष्टि से अनिवार्य होते हुए भी वास्तव में स्वप्न की भान्ति कलिप्त है, फिर वे किस के लिए शोक करें और क्यों करें? समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है| शरीर के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में नहीं है|
भिन्न भिन्न शरीरों को धारण करने वाले, उनसे सम्बन्ध रखने वाले भिन्न-भिन्न आत्मा प्रतीत होते हैं, वे वस्तुतः भिन्न-भिन्न नहीं है,सबका एक ही चेतन तत्व है, जैसे निद्रा के समय स्वप्न की सृष्टि में एक पुरुष के सिवा कोई वस्तु नहीं होती, स्वप्न का समस्त नानात्व निद्रा जनित होता है, जागने के बाद पुरुष एक ही रह जाता है, वैसे ही यहाँ भी समस्त नानात्व अज्ञान जनित है, ज्ञान के अनन्तर कोई नानात्व नानात्व नहीं रहता है|
पुराने शरीर के त्याग और नये शरीर के ग्रहण में अज्ञानी पुरुष को ही दुःख होता है, विवेकी को नहीं| माता बालक के पुराने वस्त्र उतारती है और नये पहनाती है, परन्तु माता उसके रोने की परवाह न करके उसके हित के लिए उसके वस्त्र बदल ही देती है, इसी प्रकार जीव के हित के लिए उसके रोने की परवाह न करके उसकी देह को बदल देते हैं, आत्मा वहीँ रहती है| मनुष्य को जब तक तत्व का ज्ञान न होगा तब तक न जाने कितने असंख्य पुराने शरीरों का त्याग और नये शरीरों को धारण करता रहेगा|
महात्माओं का स्वभाव भी ऐसा ही होता है कि जगत में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःख आदि द्वन्दों में डाल देते हैं, तब भी वे सदा हर्षित या व्यथित नहीं होते, क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे है| आत्मा के 12 उत्कृष्ट लक्ष्ण हैं| (1) नित्य (2) शुद्ध (3) अविनाशी (4) स्वयं प्रकाश (5) एक (6) क्षेत्रज्ञ (7) आश्रय (8) निर्विकार (9) सबका कारण (10) व्यापक (11) सत्संग तथा (12) आवरण रहित|
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जिज्ञासु का परम धर्म है आत्मा| इसलिये वह स्त्री-पुत्र-घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखें और किसी में कुछ विशेष आत्मा का आरोप करके उसके ममता न करें, उदासीन रहें| जैसी जलन वाली लकड़ी से उसे जलाने वाली और प्रकाशित करने वाली आग सर्वथा अलग है, ठीक वैसे ही विचार करने पर जान पड़ता है कि पञ्च भूतों का बना स्थूल शरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्वों का बना सूक्ष्म शरीर दोनों ही दृश्य और जड़ हैं| उनको जानने और प्रकाशित करने वाला आत्मा साक्षी एवं स्वयं प्रकाश है| शरीर अनित्य, अनेक एवं जड़ है| आत्मा नित्य एवं चेतन है| इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान विलक्षणता है| अतःएव देह से आत्मा भिन्न है| जब आग लकड़ी से प्रज्वलित होती है, तब लकड़ी की उत्पत्ति, विनाश बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है| परन्तु सच पूछो तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं| वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है, तब वह देह की जड़ता, अनित्यता, अनेकता आदि गुणों से सर्वथा रहित होने पर भी उनसे युक्त जान पड़ता है|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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