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रविवार, 22 मई 2016

नारायण शब्द की व्याख्या

|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
‘नारायण’ शब्द की व्याख्या
योगीश्वर पिप्पलायन जी द्वारा ‘नारायण’ शब्द की व्याख्या-जो इस संसार कि उत्त्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उत्पादन-कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वाला भी- परन्तु स्वयं कारण रहित है, जो स्वप्न जागृत और सुषुप्ति अवस्था में उनके साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में ज्यों-का-त्यों एक रस रहता है, जिसकी सत्ता से ही सत्तावान होकर, शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना अपना काम करने में समर्थ होती हैं, उसी परम सत्य को ‘नारायण’ कहते हैं|
भगवान् श्री कृष्ण का नारायण रूप
जल में शयन करते हुए जब योग निद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि सरोवर से एक कमल प्रकट हुआ और कमल के प्रजापतिओं के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए| भगवान् के उस विराट अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है| वह भगवान् का विशुद्ध श्रेष्ठ सत्वमय रूप है| योगी दिव्य दृष्टि से भगवान् के इस रूप का दर्शन करते हैं| भगवान् के यह रूप हज़ारों पैर, जांघें, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण हैं| उनमें सहस्त्र सिर, हज़ारों कान, हज़ारों आँखें, हज़ारों नासिकायें हैं| हज़ारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लासित रहता है| भगवान् का यही पुरुष रूप ‘नारायण’ रूप कहलाता है|
ब्रह्मा शब्द का ज्ञान
     जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही नारायण था| सृष्टि का निरूपण करने के लिए उसी को त्रिगुण (सत्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया है| फिर उसी को ज्ञान प्रधान होने के कारण क्रिया प्रधान होने से सूत्रात्मा और जीव की उपाधि होने के अहँकार के रूप में वर्णन किया गया है| वास्तव मैं जितनी भी शक्तियाँ हैं- चाहे वे इन्द्रियों से अधिक देवताओं के रूप में में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विशिं के प्रकाश के रूप में हों- सबका सब वह ब्रह्मा ही है, क्योंकि ब्रह्मा की शक्ति अनन्त है| कहाँ तक कहूं? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य हैं-सब कुछ ब्रह्मा ही है| वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न कभी जन्म लेता है और ना ही कभी मरता है| वह ना अभी बढ़ता है और ना कभी घटता ही है|
जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ हैं- चाहे वे क्रिया, संकल्प और उनके अभाव के रूप में ही क्यों न हों-सबकी भूत भविष्यत और वर्तमान सत्ता का वह साक्षी है|
     वेद परोक्षवादात्त्मक है| परोक्षवादात्त्मक से अभिप्राय है कि जिससे शब्दार्थ कुछ और मालुम डे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो उसे परोक्षवाद कहते हैं| कर्म (शास्त्रानुसार), अकर्म (शास्त्रों के विपरीत) और विकर्ण (विहित का उल्लंघन)- ये तीनों एक मात्र से जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती| वेद ईश्वर रूप हैं,  इसलिए उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है| इसी से बड़े-बड़े विद्वान भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं| जो पुरुष चाहता है की शीघ्र मेरे ब्रह्म स्वरूप आत्मा की ह्रदय ग्रन्थि- मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिए कि वह वैदिक और तांत्रिक दोनों ही पद्धतियों के द्वारा भगवान् की अराधना करे| पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे| अपने को भगवान् की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े उसी के द्वारा पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करे|

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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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