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शनिवार, 7 मई 2016

श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 17

अर्जुन बोले :

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥१७- १॥
हे कृष्ण। जो लोग शास्त्र में बताई विधि की चिंता न करअपनी श्रद्धा अनुसार यजन (यज्ञ) करते हैं,उन की निष्ठा कैसी ही - सातविकराजसिक अथवा तामसिक।
श्री भगवान बोले :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥१७- २॥
हे अर्जुन। देहधारियों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है -सात्त्विक,राजसिक और तामसिक। इस बारे में मुझ से सुनो।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१७- ३॥
हे भारतसब की श्रद्धा उन के अन्तःकरण के अनुसार ही होती है। जिस पुरुष की जैसी श्रद्धा होती है,वैसा ही वह स्वयं भी होता है।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥१७- ४॥
सातविक जन देवताओं को यजते हैं। राजसिक लोग यक्ष औऱ राक्षसों का अनुसरण करते हैं। तथा तामसिक लोग भूत प्रेतों की यजना करते हैं।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥१७- ५॥

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥१७- ६॥
जो लोग शास्त्रों में नहीं बताये घोर तप करते हैंऐसे दम्भअहंकारकामराग औऱ बल से चूर अज्ञानी (बुद्धि हीन) मनुष्य इस शरीर में स्थित पाँचों तत्वों को कर्षित करते हैंसाथ में मुझे भी जो उन के शरीर में स्थित हुँ। ऐसे मनुष्यों को तुम आसुरी निश्चय (असुर वृ्त्ति)वाले जानो।
गुण अनुसार भेद वर्णन (अध्याय 17 शलोक से 22)
श्री भगवान बोले :


आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥१७- ७॥
प्राणियों को जो आहार प्रिय होता है वह भी तीन प्रकार का होता है। वैसे ही यज्ञतप तथा दानसभी - ये सभी भी तीन प्रकार के होते हैं। इन का भेद तुम मुझ से सुनो।
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥१७- ८॥
जो आहार आयु बढाने वालाबल तथा तेज में वृद्धि करने वालाआरोग्य प्रदान करने वालासुख तथा प्रीति बढाने वालारसमयीस्निग्ध (कोमल आदि)हृदय की स्थिरता बढाने वाला होता है - ऐसा आहार सातविक लोगों को प्रिय होता है।
कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥१७- ९॥
कटु (कडवा)खट्टाज्यादा नमकीनअति तीक्षण (तीखा)रूखा या कष्ट देने वाला - ऐसा आहार जो दुखशोक और राग उत्पन्न करने वाला है वह राजसिक मनुष्यों को भाता है।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥१७- १०॥
जो आहार आधा पका होरस रहित हो गया होबासादुर्गन्धितगन्दा या अपवित्र हो - वैसा तामसिक जनों को प्रिय लगता है।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥१७- ११॥
जो यज्ञ फल की कामना किये बिनायज्ञ विधि अनुसार किया जायेयज्ञ करना कर्तव्य है - मन में यह बिठा कर किया जाये वह सात्त्विक है।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥१७- १२॥
जो यज्ञ फल की कामना सेऔर दम्भ (दिखावे आदि) के लिये किया जायेहे भारत श्रेष्ठऐसे यज्ञ को तुम राजसिक जानो।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥१७- १३॥
जो यज्ञ विधि हीन ढंग से किया जायेअन्न दान रहित होमन्त्रहीन होजिसमें कोई दक्षिणा न हो,श्रद्धा रहित हो - ऐसे यज्ञ को तामसिक यज्ञ कहा जाता है।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१७- १४॥
देवताओंब्राह्मणगुरु और बुद्धिमान ज्ञानी लोगों की पूजाशौच (सफाईपवित्रता)सरलता,ब्रह्मचार्यअहिंसा - यह सब शरीर की तपस्या बताये जाते हैं।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥१७- १५॥
उद्वेग न पहुँचाने वाले सत्य वाक्य जो सुनने में प्रिय और हितकारी हों - ऐसे वाक्य बोलनाशास्त्रों का स्वध्याय तथा अभ्यास ये वाणी की तपस्या बताये जातेहै।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७- १६॥
मन में शान्ति (से उत्पन्न हुई प्रसन्नता),सौम्यतामौनआत्म संयमभावों (अन्तःकरण) की शुद्धि - ये सब मन की तपस्या बताये जाते हैं।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥१७- १७॥
मनुष्य जिस श्रद्धा से तपस्य करता हैवह भी तीन प्रकार की है। सातविक तपस्या वह है जो फल की कामना से मुक्त होकर की जाती है।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥१७- १८॥
जो तपस्या सत्कारमान तथा पूजे जाने के लिये की जाती हैया दिखावे अथवा पाखण्ड से की जाती हैऐसी अस्थिर और अध्रुव (जिस का असतित्व स्थिर न हो) तपस्या को राजसिक कहा जाता है।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- १९॥
वह तप जो मूर्ख आग्रह कारण (गलत धारणा के कारण) और स्वयं को पीडा पहुँचाने वाला अथवा दूसरों को कष्ट पहुँचाने हेतु किया जायेऐसा तप तामसिक कहा जाता है।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥१७- २०॥
जो दान यह मान कर दिया जाये की दान देना कर्तव्य हैन कि उपकार करने के लियेऔर सही स्थान परसही समय पर उचित पात्र (जिसे दान देना चाहिये) को दिया जायेउस दान को सात्विक दान कहा जाता है।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥१७- २१॥
जो दान उपकार हेतुया पुनः फल की कामना से दिया जायेया कष्ट भरे मन से दिया जाये उसे राजसिक कहा जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- २२॥
परन्तु जो दान गलत स्थान पर या गलत समय परअनुचित पात्र को दिया जायेया बिना सत्कार अथवा तिरस्कार के दिया जायेउसे तामसिक दान कहा जायेगा।
ॐ तत्सत् व्याख्या (अध्याय 17 शलोक 23 से 28)
श्री भगवान बोले :
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥१७- २३॥
ॐ तत सत् - इस प्रकार ब्रह्म का तीन प्रकार का निर्देश कहा गया है। उसी से पुरातन काल में ब्राह्मणों,वेदों और यज्ञों का विधान हुआ है।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥१७- २४॥
इसलिये ब्रह्मवादि शास्त्रों में बताई विधि द्वारा सदा ॐ के उच्चारण द्वारा यज्ञदान और तप क्रियायें आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥१७- २५॥
और मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य "तत" कह कर फल की इच्छा त्याग कर यज्ञतप औऱ दान क्रियायें करते हैं। (तत अर्थात वह)
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥१७- २६॥
हे पार्थसद-भाव (सत भाव) तथा साधु भाव में सत शब्द का प्रयोग किया जाता है।उसी प्रकार प्रशंसनीय कार्य में भी'सतशब्द प्रयुक्त होता है।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥१७- २७॥
यज्ञतप तथा दान में स्थिर होने को भी सत कहा जाता है। तथा भगवान के लिये ही कर्म करने को भी'सतकहा जाता है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥१७- २८॥

जो भी यज्ञदानतपस्या या कार्य श्रद्धा बिना किया जायेहे पार्थ उसे 'असत्कहा जाता हैन उस से यहाँ कोई लाभ होता हैऔर न ही आगे।