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शनिवार, 14 मई 2016

सत्संग की महिमा

॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
सत्संग की महिमा
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि संसार की जितनी आसक्तियां हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है|
यही कारण है कि जिस प्रकार सत्संग मुझे वश में कर लेता है, वैसा साधन न योग है, न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय| तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता| व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं है| हर युग में सत्संग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गंधर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गह्यकऔर विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है| वृत्रासुर, प्रहलाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जामवंत, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, धर्म व्याध, कुब्जा, ब्रज की गोपियाँ, यज्ञ पत्नियाँ और अन्य भी मुझे सत्संग के द्वारा ही प्राप्त हो सके हैं| उन लोगों ने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विविध पूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी| केवल सत्संग के प्रभाव से वे मुझे प्राप्त हो गये| बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे प्राप्त नहीं कर सकते. परन्तु सत्संग के द्वारा तो मैं अत्यंत सुलभ हो जाता हूँ|

    जिस समय अक्रूर जी भैया बलराम के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का हृदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रंगा हुआ था| मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थी और मेरे अतिरिक्त कोई भी अन्य वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ रही थी| मैं ही उनका एक मात्र प्रियतम था| जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत सी रास की रात्रियाँ मेरे साथ बिता दी थीं, परन्तु मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिए एक एक कल्प के समान हो गयीं| जैसे बड़े बड़े ऋषि-मुनि समाधि में स्थित हो कर तथा गंगा आदि बड़ी बाबी नदियों में मिलकर अपने नाम खो देती हैं, वैसे ही गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझ में इतनी तन्मय हो गयी थीं| उन गोपियों में बहुत सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक रूप को नहीं जानती थीं| वे मुझे भगवान न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जर भाव से मिलने की अकांक्षा किया करती थीं| उन सैंकड़ों अबलाओं ने केवल संग के प्रभाव से मुझ परब्रह्मा परमात्मा को प्राप्त कर लिया| 
योगीश्वर कवि के अनुसार भागवत धर्म- भगवान श्री कृष्ण ने भोले भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात अपनी प्राप्ति के लिये जो उपाय स्वयं बताये हैं, वहीँ भागवत धर्म कहलाता है| इन भागवत धर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीड़ित नहीं होता और नेत्र बन्द कर दौड़ने पर भी अर्थात विधि-विधान से त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग स्खलित होता है और न ही पतित- फल से वञ्चित होता है| भागवत धर्म हां पालन करने वाले के लिए यह नियम नहीं है कि वह विशेष प्रकार का कर्म ही करें| वह शरीर, मन से, इन्द्रियों से बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों तथा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परम पुरुष भगवान नारायण के लिये ही है- इस इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे| यही सरल से सरल सीधा-सा भागवत धर्म है| इश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ, इस प्रकार भ्रम उत्पन्न हो जाता है। इस देह आदि वस्तुओं अन्य में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेक भय होते हैं। इसलिए अपने गुरु को ही आराध्य देव परम-प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिए| संसार में भगवान की बहुत सी कथाएँ प्रसिद्ध हैं| उनको सुनते रहना चाहिए|


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भगवान् श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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