॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
त्रिगुण परमेश्वर
सत्व गुण विष्णु हैं, रजोगुण प्रजापति ब्रह्म हैं और तमोगुण साक्षात रूद्र देव हैं। भगवान विष्णु तम के प्रकाशक हैं जो काल के रूप में व्यवस्थित हैं। जब सत्व के प्रकाशक विष्णु होते हैं तो स्थिति की दशा में व्यवस्थित होते हैं। ये ही तीन लोक हैं, ये ही तीन गुण हैं। ये ही तीन वेद हैं और ये तीन अग्नियाँ हैं। निश्चित रूप से आपस में अन्वय वाले हैं अर्थात एक-दूसरे के आश्रित हैं और परस्पर एक दूसरे के अनुव्रत रहा करते हैं।यह परस्पर बरतते हैं और परस्पर प्रेरणा किया करते हैं। ये परस्पर जोड़ा बनकर रहा करते हैं। इनका एक भी क्षण वियोग नहीं होता और न ही एक दूसरे का त्याग किया करते हैं। सत्व, रजो और तमो यह तीनों गुण ही स्वयंभू की तीन अवस्थाएँ हैं। ब्रह्मात्व की दशा में सब रजोगुण हैं और काल की अवस्था में रजोगुण और तमोगुण से युक्त होते हैं। जब पुरुष की दशा में ये होते हैं तो सत्वगुण की दशा में होते हैं। (पुरुष भगवान की अवस्था को कहा गया है) इस प्रकार स्वयंभू में गुणों की वृद्धि होती है। जब ब्रह्मा जी की दशा में रहते हैं तो यह लोकों का सृजन किया करते हैं। जब काल का स्वरूप धारण करते हैं तो उन लोकों का संक्षय करते हैं। ऐसे स्वयंभू की तीन भिन्न अवस्थाएँ करती हैं। ब्रह्मा कमल के समान नेत्रों वाले हुआ करते हैं और काल का जब उनका स्वरूप होता है तो अञ्जन के समान कृष्ण वर्ण होता है। जब उदासी पुरुष के रूप में होते हैं तो परमात्मा के स्वरूप से पुण्डरीकाक्ष होते हैं। इस प्रकार से, दो प्रकार से, तीन प्रकार से फिर बहुत प्रकार से योगिश्वर प्रभु अनेक शरीरों को बनाया करते हैं और बदलते रहते हैं । अनेक क्रिया आकार और स्वरूप का आश्रय करते हैं। लोक में तीन प्रकार से होकर रहते हैं इसी कारण से इनको 'त्रिगुण' कहा जाता है।
जिस समय यह शयन किया करते हैं उस समय से यह अर्धान्त होते हैं। प्रभु विषयों का भोग किया करते हैं, तब निरन्तर भाव होता है, इसी को आत्मा कहा जाता है और ऋषि इसमें सर्वगत हैं। वह शरीर में हैं। भगवान विष्णु सब के स्वामी हैं क्योकि विष्णु जी का सब में प्रवेश होता है। भगवान अप्रसद भाव से नाग हैं, और नाग का संशय नहीं होता है। संप्रहष्ट होने से परम है और देवता होने से 'ओ३म' यह स्मृति है। सबके विज्ञान होने से यह सर्वज्ञ हैं क्योकि सबमें हैं अतएव इन्हें सर्व कहा जाता है। नरों में अर्थात जलों में यह स्वपन क्रिया करते हैं इस कारण इन्हें 'नारायण' कहा गया है। अपने आप के स्वरूप को तीन भागों में विभक्त करके यह सकल से संप्रवृत हुआ करते हैं। इन तीनो स्वरूपों से यह लोगों का सृजन पालन और क्रम से शासन किया करते हैं। वही सबके आगे 'हिरण्य गर्भ' होते हुए स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं। क्योकि यह स्ववशी हैं अर्थात अपने ही वश में रहने वाले हैं ऐसा कहा गया है। उसी कारण पुराणों में इनको 'हिरणायगर्भ' कहा जाता है। जो स्वयंभुव हैं वह निवृत वर्णों में अग्रकाल हैं। इनकी परिसंख्या मनु के करोड़ों वर्षों में भी नहीं की जा सकती है। कल्पों की संख्या से निवृत ब्रह्मा का परार्ध कहा जाता है उतने में ही वह काल है अंत में अन्यकाल प्रतिबुद्ध होते हैं। करोड़ों सहस्र वर्ष जो कि इसके ग्रहभूत हैं उतने कल्पों के समतीत हैं और जो शेष हैं वे दूसरे हैं|
केशव शब्द की व्याख्या- क, अ, ईश और व- इन चारों के मिलने से ‘केशव’ पद बना है| अतः ‘क’- ब्रह्मा, ‘विष्णु’- ‘ईश’- शिव यह तीनो जिसके ‘व’- वप अर्थात स्वरूप हैं उसको केशव कहते हैं|
जनार्दन- सब लोग जिनसे अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए याचना करते हैं, उसका नाम ‘जनार्दन’ है|
मधू सूदन- देवताओं पर अत्याचार करने वाले मधू नाम के दैत्य को मारने के कारण भगवान श्री कृष्ण का नाम ‘मधू सूदन’ हुआ |
हृषिकेश- हृषिकेश इन्द्रियों का नाम है| उनके स्वामी को ‘हृषिकेश’ कहते हैं| भगवान इन्द्रियों के अधीश्वर भी हैं और हर्ष, सुख और परमैश्वर्य का निधान भी हैं, इसलिए उनका नाम ‘हृषिकेश’ है|
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भगवान् श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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