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बुधवार, 18 मई 2016

योगीश्वर के अनुसार भगवान का स्वरूप

॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
योगीश्वर के अनुसार भगवान का स्वरूप
    यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-सब-के-सब भगवान के शरीर हैं।
सभी रूपों में भगवान प्रकट हैं| ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आता-जाता है-चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी उसे अनन्य भाव से भगवद भाव से प्रणाम करता है| जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख) पुष्टि (जीवन शक्ति का संचार) और क्षुधा-निवृति-ये तीनों एक साथ होते जाते हैं, जैसे ही जो मनुष्य भगवान् की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त वस्तुओं में वैराग्य-इन तीनो को एक साथ ही प्राप्त हो जाती है| इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृति के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान के स्वरूप की स्फूर्ति-ये सब अवश्य की प्राप्त होते हैं| 
    भगवान के अचिन्त्य और अकथनीय स्वरूप, स्वभाव, महत्त्व, तथा अप्रितमगुण मन एवं वाणी के द्वारा यथार्थ रूप में समझे और कहे नहीं जा सकते| भगवान के निर्गुण-सगुन दोनों ही रूप नित्य और दिव्य हैं| वे अपने अचिन्त्य और अलौकिक दिव्य स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव और गुणों के लिये हुए ही अनेक रूपों में अवतार धारण करते हैं| मनुष्यादि के रूपों में उनका प्रादुर्भाव होना ही जन्म और अन्तर्धाम हो जाना ही परम धाम गमन है| अन्य प्राणियों की भान्ति शरीर-संयोग-वियोग रूप जन्म-मरण उनके नहीं होते| अपनी अनन्त दयालुता और शरणागत वत्सलता के कारण जगत के प्राणियों को अपनी शरणागति का सहारा देने के लिये ही भगवान अपने अजन्मा, अविनाशी और महेश्वर-स्वभाव तथा सामर्थ्य के सहित ही नाना स्वरूपों में प्रकट होते हैं और अपनी आलौकिक लीलाओं से जगत के प्राणियों के परमानन्द के महान प्रशान्त महासागर में निमिग्न कर देते हैं| 
    भगवान के यही नित्य अनुतमम और परम भाव हैं तथा इसको न समझना ही अनन्तमय, अविनाशी, परम भाव को नहीं समझना है| भगवान ने स्वयं कहा है कि मैं अजन्मा, अविनाशी परमेश्वर ही अपने प्रकृति को स्वीकार करके साधुओं के परित्राण दुष्टों के विनाश और धर्म स्थापनादि के लिये समय-समय पर प्रकट होता हूँ| जो भगवान के प्रति भक्त होते हैं तथा उनके गुण, प्रभाव, स्वरूप और लीला में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हैं| जिनको भगवान अपना परिचय देना चाहते हैं केवल उन्हीं के वे प्रत्यक्ष होते हैं| पूर्व में व्यतीत और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझ को कोई भी श्रद्धा-भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता| 
    जिस योग शक्ति से भगवान दिव्य गुणों के सहित स्वयं मनुष्यादि रूपों में प्रकट होते हुये भी लोकदृष्टि में जन्म धारण करने वाले साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं, उसी माया शक्ति का नाम योग शक्ति है| 
भगवान श्री कृष्ण की स्तुति भाग-(1)
    देवताओं द्वारा भगवान श्री कृष्ण की गर्भ स्तुति- जब देवकी जी एवं वसुदेव जी कंस के कैद खाने में थे और भगवान श्री कृष्ण वायु रूप में देवकी जी के गर्भ में आये तब भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंस के कैद खाने में आये| उनके साथ अपने अनुचरों सहित समस्त देवता और देव ऋषि नारद जी भी थे| भगवान श्री हरी की स्तुति इस प्रकार करने लगे| प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं| सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है| सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात और संसार की स्थिति के समय इस असत्य व्यवस्था में भी आप सत्य हैं| पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्य मान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं| आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थ स्वरूप हैं आप ही मधुरवाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं| भगवन! आप तो बस, सत्य स्वरूप ही हैं| हम सब आपकी शरण में आये हैं| यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष है|


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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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