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सोमवार, 23 मई 2016

नारायण का स्वरूप ब्रह्मा जी की दृष्टि से

|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
‘नारायण’ का स्वरूप ब्रह्मा जी की दृष्टि से
वेद नारायण के परायण हैं, देवता भी नारायण के अंगों में कल्पित हैं, समस्त यज्ञ भी नारायण की प्रसन्नता के लिए हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है, वे भी नारायण में ही कल्पित हैं|
सब प्रकार के योग नारायण की प्राप्ति के हेतु हैं| सारी तपस्याएँ नारायण की ओर ही ले जाने वाली हैं| ज्ञान के द्वारा नारायण ही जाने जाते हैं| समस्त साध्य और साधनों का पर्यवासन भगवान् नारायण ही हैं| वे द्रष्टा होने पर भी ईश्वर ही स्वामी हैं| निर्विकार होने पर भी सर्वस्वरूप हैं| उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टि से ही प्रेरित होकर मैं उनकी इच्छानुसार सृष्टि संरचना करता हूँ|
     जब विराट पुरुष ब्रह्माण्ड को फोड़कर निकला तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्धि-संकल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल से सृष्टि की| विराट पुरुष ‘नर’ से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम ‘नीर’ पड़ा और और अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’ में वह पुरुष एक हज़ार वर्ष तक रहा, इसी से उसका नाम नारायण हुआ| उस ‘नारायण’ भगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म,काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है| उन अद्वितीय भवान नारायण ने योग निद्रा से जागकर अनेक होने की इच्छा की, तब अपनी से उन्होंने अखिल ब्रह्माण्ड के बीच स्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्य का तीन भागों में विभक्त कर दिया| (1) अधिदेव (2) अध्यात्म और (3) अधिभूता|
सन्त पुरुषों के लक्ष्ण
     सन्त पुरुषों के लक्षण यह हैं कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं है| उनका चित्त मुझ (भगवान्) में लगा रहता है| उनके हृदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है| सदा-सर्वदा-सर्वत्र सब-मिसब रूपों में स्थित भगवान् का ही दर्शन करते हैं| उनमें अहँकार का लेश भी नहीं होता| हिंसा, आदि की तो संभावना ही कहाँ है ? वे सर्दी-गर्मी द्वन्द्वों में एक रस रहते हैं|
ब्रह्मा को भगवान् के गोपनीय स्वरूप का भगवान् द्वारा बोध कराना
     सृष्टि  से पूर्व केवल मैं-ही-मैं था| मेरे अतिरिक्त स्थूल न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान| जहां यह सृष्टि नहीं है, वहां मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में न होने पर भी जो कुछ अनिवर्चनीय वास्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चंद्रमाओं की तरह मिथ्या प्रीत हो रही है, इसे मेरी माया समझनी चाहिए| जैसे प्राणियों के पञ्चभूत रचित छोटे-बड़े शरीरों से आकाश आदि पञ्चमहाभूत उन शरीरों के रूप में निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों के कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप में प्रवेश किये हुए हूँ और आत्म दृष्टि से अपने अतिरिक्त और और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ| इस से सिद्ध होता है कि सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वत्र स्थित हैं, यही वास्तविक तत्व है |

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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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