|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
भगवान् की माया
योगीश्वर अन्तरिक्ष जी द्वारा भगवान् की माया का वर्णन- आदि पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और उनके विषय-मोक्ष मोक्ष कि सिद्धि के लिए अथवा अपने उपासकों की उत्कृष्ट सिद्धि के लिए स्वनिर्मित पञ्चभूतों के द्वारा नाना प्रकार के देव मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को भगवान् की माया कहते हैं|भगवान् की माया पञ्च महाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणी शरीरों में उन्होंने अन्तर्यामी रूप से प्रवेश किया और अपने को पहले एक मन के रूप में और इसके बाद पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कामेन्द्रिय- इन दस रूपों में विभक्त का दिया तथा उन्ही के द्वारा विषयों का भोग कराने लगे| यह देहभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पञ्च भूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है| यह भगवान् की माया है|
भगवान् की अन्य माया-
1. अब जब मनुष्य कामेन्द्रियों के समान कर्म करता है और अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दुःख भोग करने लगता है और शरीर धारी होकर इस शरीर में भटकने लगता है यह भगवान् की माया है|2. इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमंगलमय कर्मगतिओं से उनके फलों को प्राप्त करता रहता है- यह भगवान् की माया है|
3. जब पञ्चभूतों के प्रलय का समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल एवं सूक्ष्म द्रव्य तथा गुण रूप इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, इसके मूल कारण की ओर खींचता है- यह भगवान् की माया है|
5. संकर्षण (शेषनाग) के मुँह से आग की प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायु की प्रेरणा से वे लपटें पाताल लोक को जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं- यह भगवान् की माया है|
6. इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्त मेघगन हाथी की सूंड के समान मोती मोती धाराओं से सौ वर्ष तक जल बरसाता है| उससे यह विराट ब्रह्माण्ड जल में डूब जाता है- यह भगवान् की माया है|
7. उस समय जैसे बिना ईंधन के आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीर को छोड़कर सूक्ष्म स्वरूप अव्यक्त के लीन हो जाते हैं- यह भगवान् की माया है|
8. वायु पृथ्वी की गंध खीच लेती है, जिस से वह जल के रूप में ही हो जाती है जब वाही वायु जल के रूप को खीच लेती है, तब वेह जल अग्नि रूप हो जाता है- यह भगवान् की माया है|
9. जब अन्धकार अग्नि का रूप छीन लेता है, तब वह अग्नि वायु में लीन हो जाती है और जब आकाश वायु की स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाश भी लीन हो जाता है- यह भगवान् की माया है|
10. ईश्वर आकाश के शब्द और गुण को हर लेता है, जिससे वह तामस आकार में लीन हो जाता है| इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहँकार में लीन हो जाती हैं| मन सात्विक अहँकार महत्त्व में लीन हो जाता है| महत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन होती है| फिर इसी उलटे कर्म में सृष्टि होती है- यह भगवान् की माया है|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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