|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
भगवद भक्त के लक्ष्ण
योगीश्वर हरि के अनुसार भगवद भक्त के लक्षण- आत्म स्वरूप भगवान् समस्त प्राणियों में आत्म रूप से नियता रूप से स्थित हैं| जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान् में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्त रूप से स्थित है, अर्थात् वास्तव में भगवद स्वरूप ही है-इस प्रकार जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान् का परमप्रेमी उत्तम भगवद समझना चाहिए|
जो भगवान् से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुःखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान् से द्वेष करने वालों की अपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भगवद है| जो भगवान् कि अर्चा-विग्रह-मूर्ति आदि की पूजा तो श्रद्धा से करता है, परन्तु भगवान् के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा शुश्रुषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भगवद भक्त है|
भगवद प्राप्ति
मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जीवन के दुर्लभ अवसर को व्यर्थ न जाने दे और कर्मयोग, सांख्ययोग तथा भक्तियोग आदि किसी भी साधन में लगकर अपने जीवन (जन्म) को सफल बना ले|यही अपने द्वारा अपना उधार करना है | तुम यह न समझो कि प्रारब्ध बुरा है, इसलिए तुम्हारी उन्नति होगी ही नहीं| तुम्हारा उत्थान पतन प्रारब्ध के आधीन नहीं है, तुम्हारे ही हाथ में है| साधन करो और अपने को अवनति के गड्ढे से निकालकर उन्नति के शिखर पर ले जाओ| अतःएव मनुष्य को बड़ी ही सावधानी तथा तत्परता के साथ सदा-सर्वथा अपने उत्थान की और अभी जिस स्थिति में है उससे ऊपर उठने की, राग-द्वेष, काम-क्रोध, भोग, आलस्य, प्रमोद और पापाचार को सर्वथा त्याग करने, शम, दम तितिक्षा, विवेक और वैराग्यादी सद्गुणों का संग्रह करने की, विषय चिन्ता छोड़कर श्रद्धा और प्रेम के साथ भगवद चिन्तन करने की एयर भजन-ध्यान तथा सेवा-सतसंगादि के द्वारा भगवान् कि प्राप्ति की साधना करनी चाहिए|जिसका अन्तःकर्ण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी इन्द्रियाँ भली-भांति जीती हुई हैं और जिसके लिए स्वर्ण मिट्टी पत्थर के सामान हैं वह योगी युक्त अर्थात् भगवद प्राप्त है| भगवद प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नही होता| पूर्वकृत पाप रहते हुए भी भगवद प्राप्ति के लिए अर्थात् आत्मोद्धार के लिए कर्म करने वाले किसी भी मनुष्य कि दुर्गति नहीं होती|
ज्ञान की परिभाषा- परमात्मा के निर्गुण-निराकार तत्व के प्रभाव तथा महात्म्य आदि के रहस्य सहित यथार्थ ज्ञान को ‘ज्ञान’ कहते हैं|
विज्ञान- महत्वपूर्ण और प्रभाव आदि के यथार्थ ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं |
भगवान् श्री कृष्ण की स्तुति –(२)
इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति| इसके दो फल हैं- सुख और दुःख, तीन जड़ें हैं सत्व, रज और तम, चार रस हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष| इसके जानने के चार प्रकार हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका| इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना,घटना और नष्ट होना| इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ- रूप, रुदिर, साँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र| आठ शाखाएँ हैं- पांच महाभूत,मन, बुद्धि, और अहंकार| इसमें मुख आदि नवों द्वार खोडर हैं| प्राण,अपान व्यान, उदान, समान, नाग, कर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- यह दस प्राण हैं, दस पत्ते हैं| इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर| इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एक मात्र आप ही हैं| आपमें ही इसका प्रलय होता है और आप में ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है| आप ज्ञान स्वरूप आत्मा हैं| चराचर जगत के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं| आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय होते हैं| संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं| उनके लिए मंगलमय भी होते हैं| कमल के समान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रों वाले प्रभु! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रय स्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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