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शुक्रवार, 13 मई 2016

नारद ऋषि जी

॥ श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ॥
श्री हरि
नारद ऋषि जी 
    नारद जी अपने पूर्व जन्म में एक वेदचारी ब्राह्मणों की एक दासी का लड़का था। बचपन से ही उन्हें ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त कर दिया गया था। नारद जी के शैल स्वभाव को देखकर मुनियों ने उनपर बहुत अनुग्रह किया। उनकी अनुमति से बर्तनों पर लगा जूठन एक बार खा लिया करता था। इस क्रिया से उसके सारे पाप धुल्ल गये।
इस प्रकार उसका हृदय शुद्ध हो गया, वे लोग जैसा भजन पूजन करते थे उसमे ब्राह्मण की रुचि हो गई वह ब्राह्मण उस सत्संग में उन लीला परायण महात्माओं के अनुग्रह से प्रिडिन श्री कृष्ण की मनोहर कथाएं सुना करता। श्रद्धा पूर्वक एक एक पद श्रवण करते-करते प्रिय कीर्ति भगवान में उसकी रुचि हो गई। उनकी बुद्धि निश्चल होने से वह इस सम्पूर्ण सत और असत रूप जगत को अपने ब्रह्मास्वरूप आत्मा में माया से कलिप्त देखने लगा। उसके चित्त में रजोगुण और तमोगुण का नाश करने वाली भक्ति का हृदय में प्रादुर्भाव हो गया। उन दीं वत्सल महात्माओं ने जाते समय कृपा करके ब्राह्मण पर गुह्यतम ज्ञान का उपदेश किया जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है। उस उपदेश से ही जगत के निर्माता भगवान श्री कृष्ण की माया के प्रभाव को ब्राह्मण जान सका। जिसके जान लेने पर उनके परम पद की प्राप्ति हो जाती है।
    ब्राह्मण की अवस्था उस समय बहुत छोटी थी। वह अपनी माँ का इकलौता पुत्र था। एक दिन माँ गौ दोहने के लिए रात के समय घर से बाहर निकली। साँप ने उसे डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वह ब्राह्मण बच्चा उत्तर दिशा की ओर चल दिया। वह बहुत थक गया था। एक सरोवर के किनारे बैठ कर उसने जल का आचमन किया व वहां पर पीपल के वृक्ष के नीचे आसान लगा कर उस वन में बैठ गया। उन महात्माओं ने जैसा सुना था हृदय में रहने वाले परमात्मा को उसी स्वरूप का उसने मन ही मन ध्यान किया। भक्तिभाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरण कमलों का ध्यान करते ही उसे भगवत प्राप्ति की उत्कृष्ट लालसा से उसके नेत्रों से आँसू छल-छला आये और उसके हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये। भगवान का वह अनिवर्चनीय स्वरूप समस्त लोकों का नाश करने वाला और मन के लिए अत्यंत लुभावना था। सहसा उसे न देखकर वह बहुत विकल हो गया और दर्शन फिर करना चाहा परन्तु भगवान ने अपनी मधुर वाणी से ब्राह्मण के शोक को शांत करते हुए कहा- खेद है की इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिसकी वासनाएं पूर्णय शांत नहीं हो गई हों उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यंत दुर्लभ है। मैंने तुझे एक बार अपने दर्शन कराये हैं यह सब संतों की सेवा का फल है। अल्पकालीन संत सेवा से तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझ में स्थिर हो गई है यह चिर स्थिर बनी रहेगी। समस्त पृथ्वी का प्रलय हो जाने पर भी तुम्हारी स्मृति मेरी कृपा से मुझ में बनी रहेगी। समय आने पर फिर उस ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। कल्प के अंत में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं उस समय उसके हृदय में शयन करने की इच्छा से इस साड़ी सृष्टि को समेट काट ब्रह्मा जी जब प्रवेश करने लगे तब उनके श्वास के साथ मैं ही उनके हृदय में प्रवेश कर गया। एक सहस्त्र चतुर्युग बीत जाने पर जब ब्रह्मा जी जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीच आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया। तब से ये ब्राह्मण नारद जी के नाम से प्रसिद्ध भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बहार और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करते हैं। इस प्रकार ऋषि मुनि नारद जी का प्रादुर्भाव हुआ।
    शिक्षा- सत्संग व्यक्ति को बदल देता है। अच्छे लोगों का संग सदैव अच्छे फल देता है। संत सेवा महान सेवा है। भगवान को सदैव श्रद्धा और पूर्णतया समर्पित होकर पाया जा सकता है। बुरी संगत से सदैव बचना चाहिए। भगवत कीर्तन ही भगवत प्राप्ति का सुगम मार्ग है।

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भगवान् श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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