|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
रास लीला (भाग 2)
भगवान् श्रीकृष्ण का ऐसा आदेश देने पर गोपियाँ बहुत उदास हो गईं| उनकी आँखें रोते-रोते लाल हो गईं, आंसुओं के मारे रुंध गयीं| उन्होंने गिरज करके अपने आँसू पोंछे और फिर कहने लगीं प्यारे श्री कृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो| हमारे हृदय की बात जानते हो|तुम्हे इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं करने चाहिए| हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं| तुम पर हमारा कोई वश नहीं है| फिर भी तुम अपनी ओर से, जैसे आदि पुरुष भगवान् नारायण कृपा कर के अपने मुमुक्ष भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो| हमारा त्याग मत मत करो| तुम्हारा यह कहना है कि अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओं की सेवा ही हमारा धर्म है- अक्षरशः सत्य है| परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए, क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशों के पद (चरण लक्ष्य) हो, साक्षात भगवान् हो, तुम्हीं सब शरीरधारियों में सुहृदय हो, आत्मा और परम प्रियतम हो| आत्मा ज्ञान में निपुण महापुरुष तुम से ही प्रेम करते हैं, क्योंकि तुम ही आत्मा हो| अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादि से क्या प्रयोजन है? हे परमेश्वर! हम पर प्रसन्न हो जाओ| कृपा करो| हमारे यह पैर तुम्हारे चरण कमलों को छोड़कर एक पग भी हटने के लिए तैयार नहीं हैं| फिर हम ब्रज में कैसे जाएँ? और यही वहाँ जाएँ तो क्या करें? तुम्हारे विरह की आग में हम अपना शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण कमलों को प्राप्त करेंगी|
तुम्हारे जिन कमल चरणों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मी जी को कभी-कभी मिलता है, उन्हीं चरण कमलों का स्पर्श हैं प्राप्त हुआ है| जिस दिन सौभाग्य हमें मिला है और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया है, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिए भी ठहरने में असमर्थ हो गई हैं| भगवन! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण ली है, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिए हैं| अब तुम हम पर भी कृपा करो| पुरुष भूषण! पुरुषोतम! तुम्हारी मधुर मुस्कान और चारु चितवन ने हमारे हृदय में प्रेम की मिलन की आग धधका दी है| अब हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो और हमें जीवन दान दो|
शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं| जब उन्होंने गोपीयों की व्यथा और व्याकुलता से भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दया से भर गया| वह आत्माराम हैं- अपने आप में ही रमण करते रहते हैं| उन्हें अपने अतिरिक्त किसी भी वास्तु की भी अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हंसकर उनके साथ क्रीडा आरम्भ की जिस से गोपीयों का मन प्रफुल्लित हो गया| कभी गोपियाँ श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करतीं, कभी श्रीकृष्ण गोपीयों के प्रेम गीत गाने लगते| हाथ फैलाना, आलिंगन करना, विनोदपूर्ण चितवन को देखना और मुस्काना-इन क्रियाओं के द्वारा गोपीयों के दिव्य काम-रस को परमोज्जवल प्रेम भाव को उत्तेजित करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे| जब भगवान् ने इस प्रकार गोपीयों को सम्मानित किया तब गोपीयों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है| वे कुछ मानवती हो गईं| जब भगवान् ने देखा कि इन्हें तो घमण्ड आ गया है और मान भी आ गया है, तब वे उनके बीच में से अन्तर्ध्यान हो गए|
*****************************************************
भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
*****************************************************
Please Visit:
***************
Our Blog: Click Here
Our Facebook Timeline: Click Here
Our Facebook Group: Click Here
Our Facebook Page: Click Here
Our Youtube Channel: Click Here
Our Blog: Click Here
Our Facebook Timeline: Click Here
Our Facebook Group: Click Here
Our Facebook Page: Click Here
Our Youtube Channel: Click Here