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गुरुवार, 23 जून 2016

महारास-(2)

|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
महारास-(2)
     शुकदेव जी ने राजा परीक्षित के सन्देह को इस प्रकार मिटाया-सूर्य, अग्नि कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं| परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं लगता| देखो, अग्नि सब कुछ खा जाती है, परन्तु उन पदार्थों के दोष से लिप्त नहीं होती|
जिन लोगों की ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं करनी चाहिए, शरीर से करना तो दूर रहा| यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठो तो उनका नाश हो जाता है| भगवान् शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिए तो वह जलकर भस्म हो जाएगा| इस प्रकार शंकर जो आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को सत्य मानना और उसके अनुसार आचरण करना चाहिए| उनके आचरण का अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है| इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि उनका जो आचरण उनके उपदेश के अनुकूल हो, उसी को जीवन में उतारे|वे समर्थवान पुरुष अहँकारहीन होते हैं, शुभ कर्म करने में उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता है और अशुभ कर्म करने में अनर्थ नहीं होता| वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं| जिनके चरण-कमलों की रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके योगीजन अपने सारे कर्म-बंधन काट डालते हैं, और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्व का विचार करके तत्वस्वरूप हो जाते हैं| समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं, तब भला उनमें कर्मबन्धनों की कल्पना कैसे हो सकती है? गोपियों के, उनके पतियों के और सम्पूर्ण शरीरधारियों के अन्तःकरण में जो आत्मरूप से विराजमान है, जो सबके साक्षी और परमपति हैं वहीँ तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं| भगवान् जीवों पर दया करने के लिए अपने आप को मनुष्य रूप में प्रकट करके यह लीला कर रहें हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवदपरायण हो जाएँ| ब्रजवासी गोपियों ने भगवान् श्रीकृष्ण में तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की| वे उनकी योगमाया से मोहित होकर ऐसा समाज रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे ही पास हैं| ब्रह्मा जी की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गई| ब्रह्ममूहूर्त आया| यद्यपि गोपियों की इच्छा घर लौटने की नहीं थी,फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गईं क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टा से, प्रत्येक संकल्प से केवल भगवान् को ही प्रसन्न करना चाहती थीं| 
     जो धीर पुरुष ब्रज युवतियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास विलास का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान् के चरणों की भक्ति प्राप्त होती है और वह बहुत शीघ्र अपने हृदय के रोम-कामविचार से छुटकारा पा जाता है| उसका काम भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है|
     ‘रास’ शब्द का मूल रस है और रस स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं| भगवान् का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है| वह अजन्मा और अविनाशी हैं| इसी तरह गोपियाँ दिव्य जगत की भगवान् की स्वरूप भूता अन्तरंग शक्तियाँ हैं| इन दोनों का सम्बन्ध दिव्य ही है| यह लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन से परे है|
     रास लीला के बारे में कई लोगों के मन में अनेक शंकाएं पैदा होती हैं| इसके निवारण के लिए श्रीमदभगवद महापुराण के दशम स्कन्ध में पृष्ठ संख्या 283 पर हनुमान प्रसाद पोद्धार जी द्वारा बहुत ही विस्तृत रूप में लिखा गया है|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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