|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
नारद जी द्वारा कंस को श्रीकृष्ण के बारे में सच्चाई बताना
भगवान् की लीला अत्यन्त अद्भुत है| इधर जब उन्होंने अरिष्टासुर को मारा, तब नारद जी कंस के पास पहुँचे| उन्होंने कंस से कहा- कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी, वह तो यशोदा की पुत्री थी, और ब्रज में जो श्रीकृष्ण हैं वो देवकी के पुत्र हैं और वहाँ जो बलराम जी हैं वह रोहिणी के पुत्र हैं|वसुदेव ने उन दोनों को अपने मित्र नन्द के पास रखा है| उन्होंने ही तुम्हारे दैत्यों का वध किया है| यह बात सुनकर कंस क्रोध से कांप गया| उसने वसुदेव जी को मारने के लिए तुरन्त तलवार उठा ली, परन्तु नारद जी ने रोक लिया| कंस ने देवकी और वसुदेव जी को हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़कर कारागार में डाल दिया| जब नारद जी चले गए, तब कंस ने केशी को बुलाया और कहा- तुम ब्रज में जा कर कृष्ण और बलराम को मार डालो| वह चला गया| चाणूर और मुष्टिक! तुम दोनों ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो| वसुदेव के दो पुत्र कृष्ण और बलराम ब्रज में नन्द के घर रहते हैं| उन्हीं के हाथों मेरी मृत्यु बताई गई है| जब वे यहाँ आवें, तब तुम उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने बार डालना| अब तुम भान्ति-भान्ति के मंच और अखाड़े बनाओ| वहां बैठकर नगरवासी और देश की दूसरी प्रजा इस स्वच्छ दंगल को देख सके| महावत को आगया दी गई कि वह दंगल के घेरे के फाटक पर ही अपने कुवाल्यापीड हाथी को को रखना और जब कृष्ण और बलराम उधर से निकलें तब उसी हाथी से उन दोनों को मरवा डालना|
फिर कंस ने श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूर जी को बुलवाया और उनके हाथ में हाथ रखकर बोला- आप तो बड़े उदार दानी हैं| सब तरह से आदरणीय हैं| आज मेरा एक काम कर दीजिये| यह काम बहुत बड़ा है, इसलिए आपको बुलवाया गया है| आप नन्दराय के ब्रज में जाइए| वहाँ से नन्द के दोनों पुत्रों को रथ में चढ़ाकर यहाँ ले आइये| यहाँ आते ही मैं उन्हें कुवाल्यापीड हाथी से मरवा डालूँगा| अगर वहाँ से बच गए तो अपने पहलवानों से मरवा डालूँगा| ये सब बातें मैंने आपको बतला दी हैं| अभी तो वह बच्चे ही हैं| उनको मार डालने में क्या लगता है? उन्हें केवल इतनी बात ही कहिये कि वे लोग धनुषयज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहाँ आ जाएँ|
अक्रूर जी ने कंस से कहा- आप अपनी मृत्यु, अपना अनिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिए आपका ऐसा सोचना उचित ही है| मनुष्य को चाहिए कि चाहे सफलता मिले या असफलता, दोनों के प्रति सम्भाव रखकर अपना काम करता रहे| फल तो प्रेरणा से नहीं, दैवी प्रेरणा से मिलते हैं| मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथों के पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैव ने, प्रारब्ध ने इसे पहले से ही निश्चित कर रखा है| मनुष्य जो सोचता है, यदि वह प्रारब्ध, दैव को मंज़ूर नहीं होता तो उसका फल भी अच्छा नहीं होता, जिससे मनुष्य विफल आयर शोकग्रस्त हो जाता है| फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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