|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
भगवान् का गोपीयों के मध्य प्रकट होना
भगवान् की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में भान्ति-भान्ति के प्रलाप करने लगीं, तथा वे फूट-फूट कर रोने लगीं| ठीक उसी समय भगवान् उनके बीच में प्रकट हो गए|उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिला हुआ था| कोटि-कोटि कामों से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देखकर गोपीयों के नेत्र प्रेम और आनन्द से खिल उठे |वे सब-की-सब एक साथ इस प्रकार उठ खाड़ी हुईं, जिस प्रकार प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो| एक गोपी ने बड़े प्रेम और आनन्द से श्रीकृष्ण का कर-कमल अपने दोनों हाथों में ले लिया और धीरे-धीरे उसको सहलाने लगी|दूसरी ने उनके चन्दन चर्चित भुजदण्ड को अपने अपने कन्धे पर रख लिया| तीसरी ने भगवान् का चबाया हुआ पान अपने हाथ में लिया| इसी तरह अन्यों ने भगवान् के भिन्न-भिन्न अंगों को स्पर्श किया| जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी सन्त पुरुष हो प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियों को भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनन्द और परम उल्हास प्राप्त हुआ|उनके विरह के कारण गोपीयों को जो दुःख हुआ था, उस से वे मुक्त हो गईं|
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों को साथ लेकर यमुना जी के पुलिन में प्रवेश किया| वह पुलिन क्या था, यमुना जी ने स्वयं अपनी लहरों से भगवान् की लीला के लिए बालु का रंगमँच बना रखा था| भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपीयों के हृदय की सारी व्याधि मिट गई| गोपियों ने भगवान् से प्रश्न किया- कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं| परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते| तुम्हें इन तीनों में से कौन सा अच्छा लगता है?
भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर ही है| जो लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं- जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता- हृदय सौहार्द से, हितैषिता पिता से भरा रहता है और सच पूछो तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं धर्म भी है| कुछ लोग ऐसे होते हैं जो, प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है| मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए| मैं ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चित्तवृति और भी मुझ में लगे, निरंतर लगी ही रहे|जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत सा धन मिल जाए और फिर खो जाए तो उसका हृदय खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, ऐसे ही मैं भी मिलकर छिप-छिप जाता हूँ| गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि तुम सभी ने मेरे लिए लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे-सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है| ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृति और कहीं न जाए, अपने सौन्दर्य और सुहाग की चिन्ता न करने लगे, मुझ में ही लगी रहे-इसलिए परोक्षरूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही छिप गया था| तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ | तुम लोगों ने मेरे लिए घर गृहस्थी कि सब बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगि-यति भी नहीं तोड़ पाते| यदि मैं तुम्हारे इस त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता| जन्म-जन्म के लिए मैं तुम सब का ऋणी हूँ|
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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