|| श्री राधा कृष्णाभ्यां नमः ||
श्री हरि
श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा
भगवान् सहसा अंतर्धान हो गए l उन्हें न देखकर ब्रजयुवतियों का ह्रदय विरह की ज्वाला से जलने लगा l वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं lअपने श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं l उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उत आयीं l वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयी l और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ' - इस प्रकार कहने लगीं l भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गए थे l वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं l वे वहीँ थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पत्तियों से - पेड़ -पोधों से उनका पता पूछने लगीं l
नन्दनन्दन श्यामसुंदर अपनी प्रम्भारी मुस्कान और चित्तवन से हमारा मन चुराकर चले गए हैं l क्या तुम लोगों ने उन्हें देखा है l प्यारी मालती ! मल्लिके !जाती और जूही ! तुम लोगों ने कदाचित हमारे माधव को देखा होगा l क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हे आनंदित करते हुए इधर से गए हैं ? श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है l हम बेहोश हो रही हैं l तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो l देखो, देखो, यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गंध आ रही है l जो उनकी परम प्रयेसी के अंग-संग से लगे हुए कुछ-कुंकुम से अनुरंजित रहती है l हमारे श्यामसुंदर इधर से विचरते हुए अवश्य गए होंगे l
इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्ण को ढूंढते-ढूंढते कातर हो रही थीं l अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान् की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं l कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगीं और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे l जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गए हुए पशुओं को बुलाने का खेल खेलने लगी l एक गोपी , दूसरी गोपियों से कहने लगती - 'मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण हूँ l तुम लोग मेरी यह मनोहर चाल देखो' l
एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण l यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया l अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुंदरी गोपी हाथों से मुँह ढँककर भय की नक़ल करने लगी l इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर श्रीकृष्ण का पता पूछने लगी l इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान् के चरणचिन्ह देखे l वे कहने लगीं - 'अवश्य ही ये चरणचिन्ह उदार शिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुंदर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज अंकुश और जौ आदि के चिन्ह स्पष्ट ही दीख रहे हैं l तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी ब्रजयुवती के भी चरण चिन्ह दिख पड़े l उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं l अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की यह 'आराधिका' होगी l इसीलिए इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राण प्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है l इस गोपी के उभरे हुए चरण चिन्ह तो हमारे ह्रदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं l भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं l वे अपने-आप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं l जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है ? उन्होंने तो एक खेल रचा था l
इधर भगवान् श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी के साथ थे, उसने समझा कि 'मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ l इसीलिए तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण केवल मेरा ही मान करते हैं l मुझे ही आदर दे रहे हैं l और श्रीकृष्ण से कहने लगीं - अब तुम मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो' श्यामसुंदर ने कहा - 'अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो' l यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी l 'हा नाथ ! हा रमण ! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ l शीघ्र ही मुझे अपने सानिध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो' l ऐसा कहकर वह अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी l इसके बाद वे जब तक चांदनी थी तब तक वे ढूंढती रही, फिर वे उधर से लौट आयीं l श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पर - रमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं l
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भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा आप सभी वैष्णवों पर सदैव बनी रहे।
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